मेरे अनुभव को अपनी प्रतिक्रिया से सजाएँ

>> Wednesday, December 31, 2008

बीत रहा है जीवन पल-पल

काल चक्र है घूम रहा

आता है जीवन में कोई

कोई पीछे छूट रहा

सूखी पुष्पों की माला जो

विगत वर्ष का हार बनी

नए वर्ष के स्वागत में फिर

मुसकाती है कली-कली

फिर आँखों में नूतन सपने

जीवन सुखी बनाने के

भूल विगत की असफलताएँ

भावी सफल बनाने के

उर- उन्माद जगा है फिर से

झंकृत मन वीणा के तार

नए वर्ष की मोहक आहट

दस्तक देती बारम्बार

आओ हम सब मिलकर बन्धु

नव आगन्तुक को लाएँ

बीत गया जो वर्ष उसे हम

आज विदाई दे आएँ

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शर्मिन्दा हुई हिन्दी

>> Monday, December 29, 2008


हिन्दी की सेवा करने वाले और उसी की कृपा से विख्यात यशस्वी साहित्यकार को देखने और उनको सुनने को मैं बहुत उत्सुक थी। यह सुअवसर मुझे कल २८ दिसम्बर को हिन्द-युग्म के वार्षिक उत्सव में मिल गया। मैं बहुत उत्साहित थी। मेरा उत्साह कुछ ही देर में क्षीण हो गया। माननीय अतिथि बड़े गर्व से सभा में सिगार पी रहे थे। मैं हैरान होकर सोच रही थी-क्या ये वही देश है जहाँ एक एक कलाकार ने केवल इसलिए गाने से इन्कार कर दिया था कि राजा पान खा रहा था। कला के पारखी क्या इतना बदल गए हैं? अपनी संस्कृति कहाँ गई? और हम सब अतिथि देवो भव का भाव रख मौन देख रहे थे।
कार्यक्रम की समाप्ति पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तब मुझपर तो जैसे बिजली ही गिर गई। उन्होने कहा- आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए। हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं। आज एक ऐसी भाषा कली आवश्यकता है जिसे दक्षिण भारतीय भी समझ सकें। एक विदेशी भी सरलता से सीख सके। अपनी बात के समर्थन में उन्होने कबीर का सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा- गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े पढ़ा और उसका विदेश में रह रही महिला द्वारा भावार्थ बता कर मज़ाक उड़ाया। फिर कहा- ऐसी भाषा की अभ कोई आवश्यकता नहीं। इसे अजायबघर में रख दो। अपनी भाषा की सम्पन्नता, उसकी समृद्धि पर गर्व छोड़ उसे दरिद्र बना दो। अपाहिज़ बना दो। एक ऐसी भाषा बना दो जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं। उन्होने हिन्दी साहित्य को भी आज के समय में व्यर्थ बताया। कबीर, प्रेमचन्द आदि का आज कोई महत्व नहीं। मुख्य अतिथि बोलते जा रहे थे और मेरे कानो में भारतेन्दु की पंक्तियाँ - नुज भाषा उन्नत्ति अहै सब उन्नत्ति को मूल गूँज रही थी। यह आधुनिकता है या अन्धानुकरण? संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिन्दी तो स्वयं ही वैग्यानिक भाषा है, सरल है तथा अनेक भाषाओं को अपने भीतर समेटे है। फिर सरलता के नाम पर उसे इतना दरिद्र बना देने का विचार????????? और वह भी एक ऐसे साहित्यकार के मुख से जो हिन्दी भाषा के ही कारण सम्मानित हैं-
अगर ऐसी बात किसी विदेशी ने कही होती तो मैं उसको अपनी भाषा के अतुल्य कोष से परिचित कराती किन्तु इनका क्या करूँ? हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए ऐसे अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करने वाले शब्द शीषे के समान कानों में गिरे। हिन्दी की सेवा करने वालों को सम्मिलित रूप से इस तरह के भाषणों का विरोध करना चाहिए। अपनी भाषा की उन्नति होगी किन्तु उसे दरिद्र बनाकर नहीं। हिन्दी का प्राचीन साहित्य अजायबघर में रखने की बात करने वाला स्वयं ही अजायबघर में रखा जाना चाहिए। अपनी भाषा का अपनमान हमें कदापि स्वीकार नहीं। मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि ऐसे लोगों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए- जिनको ना निज भाषा और निज देश पर अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक के समान है।
जय भारत जय हिन्द

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हिन्द-युग्म: 28 दिसम्बर 2008 को हिन्द-युग्म मनाएगा वार्षिकोत्सव (मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव)

>> Tuesday, December 16, 2008

हिन्द-युग्म: 28 दिसम्बर 2008 को हिन्द-युग्म मनाएगा वार्षिकोत्सव (मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव)



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आज दिल में

>> Sunday, November 30, 2008

आज दिल में एक हूक सी उठ रही है। आँखों में अंगारे हैं। समझ नहीं आता किसको दोष दूँ? आतंकवादियों को, नेताओं को या देश की भोली जनता को ? या फिर अपनी शासन प्रणाली पर आँसू बहाऊँ ? जहाँ चोर, बेईमान खुले आम जनता को लूटते हैं और जनता कुछ नहीं कर पाती ? आखिर कब तक हम इसी प्रकार देश को जलता देखते रहेंगें ? हमारे हाथ इतने कमजोर क्यों हैं ?

मैं अब एक गीत गाना चाहती हूँ, वतन अपना बचाना चाहती हूँ।
मुझे अपना जरा विश्वास दे दो, मैं अपना घर बचाना चाहती हूँ

रूदन और चीख ने हमको डराया, हमारी हर खुशी पर डर का साया
मैं डर सबका मिटाना चाहती हूँ, निडर सबको बनाना चाहती हूँ।

वतन मेरा करें वीरान वो क्यों, शरण घर में ही दुश्मन पाएगा क्यों
कमीं घर की मिटाना चाहती हूँ, मैं ये उपवन बचाना चाहती हूँ



हमारी एकता खंडित हुई है, हमारी ताकतें सीमित हुई हैं
उन्हें विस्तृत बनाना चाहती हूँ, मैं टूटा घर बनाना चाहती हूँ ,

वतन के दुश्मनों को तुम जला दो, ये है भारत की भूमि ये बता दो
नयन उनके झुकाना चाहती हूँ, नमन तुमको कराना चाहती हूँ।

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चाचा नेहरू

>> Friday, November 14, 2008

जवाहर लाल नेहरू का अर्थ है- प्रत्यक्ष ऋतुराज,चिर जीवन और आनन्द का पुतला। उन्होने एक शानदार जीवन जिया । सामान्य जीवन नहीं अपितु एक सार्थक जीवन। वे विश्व मानस थे। उन्होने अपनी दुनिया में होरहे शोषण और अन्याय को खत्म करने के लिए अपनी शक्तियों का सद् उपयोग किया,
पंडित जवाहर लाल नेहरू मूल रूप से काश्मीरी ब्राह्मण थे। उनके परदादा को राजकौल नहर के किनारे जगह मिली थी इसी से नेहरू कहलाए। इनका जन्म १४ नवम्बर १८८९ को इलाहाबाद में एक धनाड्य परिवार में हुआ। माँ-बाप धनी और इकलौता बेटा हो तो अक्सर बिगड़ जाता है। किन्तु इनको बचपन में ही उच्च संस्कार मिले। माँ और चाची की गोद में बैठकर रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनीं। धनी परिवार ने बच्चे के शिक्षा के लिए अंग्रेज शिक्षक घर पर ही नियुक्त किया । उन्होने उसके साथ रहकर काम में मन लगाना, बड़ों का आदर करना, कभी अपने को हीन ना समझना, सब तरफ का ग्यान रखना तथा साफ रहना सीखा।
उच्च शिक्षा कैमरिज में हुई। वहीं पर देश की पुकार इनके कानों में पड़ी। मेरी कहानी में उन्होने लिखा - यह हिन्दुस्तान क्या है जो मुझपर छाया बन हुआ है और मुझे बराबर अपनी ओर बुलाहै रहा । उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था। उनके व्यक्तित्व के निम्न पहलू मंत्र मुग्ध करने वाले हैं।
एक कुशल राजनेता- नेहरू जी एक कुशल राजनेता थे। गाँधी जी के नेतृत्व में राजनीति में प्रवेश किया। उन्होने जन मानस को समझा। उनकी पीड़ा को दूर करने का बीड़ा उठाया। आज़ादी के बार देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देश को एक नई दिश दी। किसानो की समस्याओं को समझा और दूर किया।
एक साहित्यकार -एक कुशल नेता के साथ-साथ वे एक उच्च कोटि के लेखक भी थे। अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर साहित्य साधना करते थे। उनके पास भाषा का भंडार था, शैली रोचक थी और कहने का ढ़ंग मनमोहक। जो भी लिखा हृदय से लिखा। उन्होने दर्जन से भी अधिक पुस्तकें लिखी। उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय रहीं- मेरी कहानी, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत एक खोज,लड़खड़ाती सी दुनिया,हमारी समस्याएँ, पिता के पत्र पुत्री के नाम आदि। इनकी भाषा थिरकती हुई तथा शब्द बोलते हुए से लगते हैं। लेखन में उनका खुला हैदय झाँकता है। जेलों में अपने समय उन्होने लेखन में ही बिताया। पिता के पत्र पुत्री के नाम यहीं लिखे। ये आज भी बच्चों को प्रेरणा देते हैं।
लोकप्रिय नेता -देश की जनता उनसे बहुत प्यार करती थी। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था। उन्हें देख लोग बहुत प्रसन्न होते थे। वे भी भारत की जनता से बेहद प्यार करते थे। इसीलिए उन्हें जनता का जवाहर कहा जाता था। वे लोगों के बीव जाते, उनकी समस्याओं को समझते और उनसे सम्पर्क करते थे। एक आम भारतीय भी उनसे मिलने में संकोच नअीं करता था। कहते हैं एक बार उनके जन्मदिन पर एक किसान बहुत दूर से शहद की एक हाँडी लेकर आया। मिलने का समय समाप्त हो चुका था। जवाहर लाल जी आराम करने ही जा रहे थे। उन्होने आवाज़ सुनी। कारण पूछा और बाहर आए। किसान ने कहा- मैं बहुत दूर से आया हूँ इसलिए देर हो गई। नेहरू जी ने एक अँगुली भर कर शहद अपने मुँह में डाला और दूसरी अँगुली ग्रामीण के मुँह में । बोले आज सबसे कीमती उपहार तुमने ही मुझे दिया है। ग्रामीण बाग-बाग हो गया। फिर शाही सवारी में उसे घर तक छुड़वाया। भला इतना प्रेम देख कौन दिवाना ना हो जाएगा?
बच्चों के प्यारे चाचा बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू जी का सर्वाधिक प्रिय रूप था चाचा नेहरू का रूप। वे बच्चों से बहुत प्रेम करते थै। अपना अधिकतर समय बच्चों के साथ बिताते और उस समय स्वयं भी बच्चे बन जाते थे। पिता के पत्र पुत्री के नाम बच्चों के लिए ग्यान का भंडार है। चाचा नेहरू का नाम लेते ही एक ऐसी छवि आँखों के सामने आती है जिसकी आँखों में बच्चों के लिए असीम प्यार हो और जिसकी बाँहें सदा उन्हें गोद में लेने को आतुर रहती हैं। बच्चों के नाम उन्होने एक लम्बा खत लिखा था मानो अपना दिल ही खोलकर रख दिया हो- प्यारे बच्चों तुम लोगों के बीच में रहना मैं पसन्द करता हूँ। तुमसे बातें करने में और तुम्हारे साथ खेलने में मुझे बड़ा मज़ा आता है। थोड़ी देर के लिए मैं भूल जाता हूँ कि मैं बेहद बूढ़ा हो चला हूँ। पत्र के अन्त में लिखा- हमारा देश एक बहुत बड़ा देश है और हम सबको मिलजुल कर अपने देश के लिए बहुत कुछ करना है। जिसका हृदय जितना नि्छल होगा, बच्चों के लिए उतना ही प्यार उसके दिल में होगा। बच्चों के साथ वे स्वयं भी बच्चे बन जाते थे। एक बार बच्चों के कार्यक्रम में उन्होने भी नृत्य किया। एक बार उनसे पूछा गया- शैतान लड़कों को कैसे सुधारा जाय ? उन्होने कहा- बच्चे को अपनी तरफ प्रेम से खींचें। बच्चों के लालन-पालन में आपको क्या दोष दिखता है- आम तौर से हिन्दुस्तान में लाड़-प्यार से बच्चों का नुकसान हो जाता है। वेदेशों में भी बच्चे उनसे बहुत प्यार करते थे। वे अक्सर बच्चों के बारे में कहा करते थे- अगर तुमको भारत का भविष्य जानना है तो बच्चों की आँखों में देखो। यदि उनकी आँखों में निराशा , डर और कमजोरी है, तो देश भी उसी दिशा में जाएगा और उसका भविष्य भी अँधकार मय होगा। इसप्रकार नेहरू जी को याद करना है तो देश के बच्चों को पूरी सुविधाएँ , उनको प्यार, अच्छा वातावरण और उन्नति के अवसर दो। उनसे प्यार करो।

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दीपावली

>> Saturday, October 25, 2008


दीपावली नाम है प्रकाश का
रौशनी का खुशी का उल्लास का
दीपावली पर्व है उमंग का प्यार का
दीपावली नाम है उपहार का
दीवाली पर हम खुशियाँ मनाते हैं
दीप जलाते नाचते गाते हैं
पर प्रतीकों को भूल जाते हैं ?
दीप जला कर अन्धकार भगाते हैं
किन्तु दिलों में -
नफरत की दीवार बनाते है ?
मिटाना ही है तो -
मन का अन्धकार मिटाओ
जलाना ही है तो -
नफ़रत की दीवार जलाओ
बनाना ही है तो -
किसी का जीवन बनाओ
छुड़ाने ही हैं तो -
खुशियों की फुलझड़ियाँ छुड़ाओ
प्रेम सौहार्द और ममता की
मिठाइयाँ बनाओ ।
यदि इतना भर कर सको आलि

तो खुलकर मनाओ दीवाली

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त्योहारों का मौसम

>> Monday, October 20, 2008


लो आगया फिर से
त्योहारों का मौसम
उनके लूटने का
हमारे लुट जाने का मौसम


बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है


धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह


व्यापारी की आँखों में
हज़ारों सपने हैं
ग्राहकों को लूटने के
सबके ढ़ग अपने हैं


कोई सेल के नाम पर
कोई उपहार के नाम पर
कोई धर्म के नाम पर
आकर्षण जाल बिछा रहा है
और बेचारा मध्यम वर्ग
उसमें कसमसा रहा है


उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं

सजी हुई दुकानें

और जगमगाते मकान

खुशियाँ फैलाते हैं.

जीवन में प्रेम भरा हो तो

गम पास नहीं आते हैं.

सादगी और सरलता से

त्योहारों को मनाओ

धन संम्पत्ति के बल पर

इन्हे दूषित ना बनाओ।


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आवाज़: सुनो कहानी: अकेली - मन्नू भंडारी की कहानी

>> Wednesday, October 15, 2008

आवाज़: सुनो कहानी: अकेली - मन्नू भंडारी की कहाणी

हिन्दयुग्म अपने पाठकों को प्रसिद्ध कहानियाँ भी सुनवाता है. इसी श्रंखला में सुनिए मन्नू भंडारी की एक कहानी अकेली और बताईये की आपको यह कहानी कैसी लगी .

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जीवन डगर

>> Tuesday, October 7, 2008


जीवन डगर के बीचो-बीच
भीड़ में खड़ी देख रही हूँ --
आते-जाते लोग-
दौड़ते वाहन
कानों को फोड़ते भौंपू
पता नहीं ये सब
कहाँ भागे जा रहे हैं ?

हर कोई दूसरे को
पीछे छोड़
आगे बढ़ जाना चाहता है ।
सबको साथ लेकर चलना
कोई नहीं चाहता है ।
आगे बढ़ना है बस…..
किसी को रौंध कर….
किसी को धकेल कर…..
किसी को पेल कर …
.
जीवन की डगर पर
भीड़ में खड़ी अचानक
अकेली हो जाती हूँ ।
कहीं कोई अपना
करीब नहीं पाती हूँ ।
हर रिश्ता इन वाहनों की तरह
दूर होने लगता है ।
मुझे पीछे धकेल कर
आगे निकल जाता है ।
और दिल में फिर से
एक अकेलापन
घिर आता है ।

जीवन की डगर पर अचानक
इतनी आवाज़ों के बीच
अपनी ही आवाज़
गुम हो जाती है ।
कानों में वाहनों के
चीखते-डराते हार्न
गूँजने लगते हैं
प्रेम की ममता की
आवाज़ें कहीं गुम
हो जाती हैं ।

मैं दौड़-दौड़ कर
हर एक को पुकारती हूँ
किन्तु मेरी आवाज़
कंठ तक ही रूक जाती है ।
लाख कोशिश के बाद भी
बाहर नहीं आती है ।

जीवन डगर पर-
अचानक कोई
बहुत तेज़ी से आता है
और मुझे कुचल कर
चला जाता है ।
मैं घायल खून से लथपथ
वहीं गिर जाती हूँ

किन्तु ……..
ये बहता रक्त-…..
ये कुचली देह….
किसी को दिखाई नही देती ।
जीवन की डगर में
मेरी आत्मा क्षत-विक्षत है
और मैं आज भी आशावान हूँ ।
मुझे लगता है
कोई अवश्य आयेगा
मेरे घावों को
सहलाने वाला
मुझे राह से
उठाने वाला ।

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आज का दिन है बड़ा महान

>> Thursday, October 2, 2008


आज दो महान पुरुषों का जन्म दिन है. महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री. दोनों ही महान नेता हुए हैं. दोनों ने अपने -अपने ढंग से राष्ट्र को प्रभावित किया. गाँधी जी संत थे जिन्होंने अपने से अधिक अपने देश के लोगों के विषय मैं सोचा. सारा जीवन एक लंगोटी में बिता दिया क्यूंकि देश के अधिकतर लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं. जाती-पाती के भेद भाव को भुलाया. उनकी विशेषता थी की उन्होंने जो कुछ भी ठीक समझा उसे अपने जीवन में सबसे पहले उत्तार. ऐसे ही नेता का अनुकरण किया जाता हैं किंतु आज के नेता उपदेश औरों के लिए देते हैं और जीवन में कुछ और करते हैं. कहा भी जाता है- पर उपदेश कुशल बहुतेरे.
गाँधी जी और शास्त्री जी दोनों ने ही सादगी का जीवन बिताया. ये दोनों ही नेता लोकप्रिय इसीकारण रहे. आज यदि इनको सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो हम सबको भी जीवन को सरल और सुंदर बनाना चाहिए. समाज अपने आप सुधर जाएगा आप तो सुधरो.
अहिंसा का जो अस्त्र बापू ने दिया वेह न जाने कहाँ खो गया. सारा देश हिंसा की आग में जल रहा है. यह सब देखकर उनकी आत्मा कितनी दुखी होती होगी. आज उनके जन्म दिवस पर क्या हम उनको कोई उपहार नहीं दे सकते? अगर दे सकते हैं तो उनको वचन देन की अपने देश को हिंसा और आतंक से मुक्त करेंगे. यही इन्दोनो को सच्ची श्रधांजलि होगी.जय भारत.

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शहीदे आज़म

>> Saturday, September 27, 2008


आज शहीदे आज़म भगत सिंह जी की जन्म तिथि है. उस वीर की जिसने अपनी इच्छा शक्ति से पुरे युग को प्रभावित किया था. उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी मृत्यु भय से मुक्ति. उन्होंने मरने की कला में महारथ हासिल किया था.. उनका मानना था कि तिल-तिल मरने से अच्छा है गौरव शाली ढंग से स्वयं मृत्यु का वरण करना. अपने अधिकारों के लिए पूरी तेयारी के साथ संघर्ष करना . उनकी मृत्यु को जीवन सलाम करता है.
उनके आदर्श थे -शहीद करतार सिंह.वे अक्सर कहा करते थे-ब्रिटिश हुकूमत के लिए माराहुआ भगत सिंह जिंदा भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक साबित होगा और वही हुआ भी. उन्होंने अदालत में कहा था- इन्कलाब की तलवार विचारों के साथ तेज़ हो जाती है. उनकी शहादत भावुकता नहीं क्रांति धर्मी चेतना थी.उन्होंने यह कहते हुए बम फोड़ा - बहरों को सुनाने केलिए बुलंद आवाज की जरुरत होती है.
वे जगह-जगह पर्चे बांटते थे और अपने लेखों द्वारा लोगों को प्रेरित करते थे. अपनीजेल डायरी में उन्होंने सोद्देश्य मृत्यु का उल्लेख किया है. २३ मार्च की शाम ७ बजे उन्हें फांसी पर लटका दिया गया . २४ साल के बालक ने वो कर दिया जो बड़े बुजुर्ग न कर सके.उन्होंने क्रांति का बीज बो दिया. देश को स्वतंत्रता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का महत्व बता दिया. इसी का परिणाम था कि आजादी के बाद समाज में लोकतंत्र की स्थापना हुई . अपने विचारों के रूप में वो आज भी जिन्दा हैं. देश उन्हें शहीद नहीं शहीदे आजम कहता है. उस पवित्र आत्मा को सादर नमन.

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जीवन नम्य मरण प्रणम्य

>> Tuesday, September 23, 2008



जला अस्थियां बारी बारी

छिटकाईं जिनने चिनगारी

जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर

लिए बिना गरदन का मोल

कलम आज उनकी जय बोल


प्रिय पाठकों !
यह सप्ताह भारत के इतिहास का एक विशिष्ट सप्ताह है। १०० वर्ष पहले इसी सप्ताह इस धरती पर दो महान विभूतियों ने जन्म लिया था। एक क्रान्तिदूत , शहीदे आज़म भगत सिंह और दूसरे राष्ट कवि रामधारी सिंह दिनकर। दोनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण से देश को दिशा निर्देशन किया। एक जीवन की कला के पुजारी रहे और दूसरे ने सोद्देश्य मृत्यु अपनाकर विश्व को हर्ष मिश्रित आश्चर्य में डाल दिया। भगत सिंह का मानना था कि तिल-तिल मरने से अच्छा है स्वयं सहर्ष सोद्देश्य मृत्यु का वरण करो और दिनकर का मानना था कि जियो तो ऐसा जीवन जियो कि जान डाल दो ज़िन्दगी में। एक ने बलिदान की तथा एक ने संघर्ष की राह दिखाई।
भगत सिंह एक विचारशील उत्साही युवा थे जिन्होने बहुत सोच समझकर असैम्बली में बम विस्फोट किया । वे जानते थे कि इसका परिणाम फाँसी ही होगा किन्तु ये भी समझते थे कि उनका बलिदान देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा देगा और अंग्रेजों का आत्मबल कम करेगा। मरा भगत सिंह ज़िन्दा भगत सिंह से अधिक खतरनाक साबित होगा और वही हुआ। उनके बलिदान के बाद क्रान्ति की लहर सी आगई। २४ वर्ष की आयु में उन्होने वो कर दिखाया जो सौ वर्षों में भी सम्भव नहीं था। उन्होने देश को स्वतंत्रता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का महत्व बता दिया। परिणाम स्वरूप आज़ादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई। ये और बात है कि यदि वे आज देश की दशा देखें तो दुखी हो जाएँ।
दूसरे महान व्यक्तित्व थे राष्ट कवि दिनकर। दिनकर जी जीने की कला के पुजारी थे।

२ वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो गया। बचपन अभावों में बीता। सारा जीवन रोटी के लिए संघर्ष किया और अवसाद के क्षणों में काव्य की आराधना की। सरकारी नौकरी करते हुए देश भक्ति और क्रान्ति से भरा काव्य लिखा और क्रान्ति का मंत्र फूँका। हुँकार, सामधेनी, रश्मि रथी, कुरूक्षेत्र ने देश के लोगों में आग जला दी। पद्मभूषण और ग्यानपीठ पुरुस्कार प्राप्त करने वाला कवि साधारण मानव की तरह विनम्र था। कभी-कभी आक्रोश में आजाता था। उन्होने समाज में संतों और महात्माओं की नहीं , वीरों की आवश्यकता बताते हुए लिखा-
रे रोक युधिष्ठिर को ना यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर।
पर फिरा हमें गाँडीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से आज करें, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे, हर-हर बम-बम का महोच्चार
देश के शत्रुओं को भी उन्होने ललकारा और लिखा-
तुम हमारी चोटियों की बर्फ को यों मत कुरेदो।
दहकता लावा हृदय में है कि हम ज्वाला मुखी हैं।
वीररस के साथ-साथ उन्होने श्रृंगार रस का मधुर झरना भी बहाया। उर्वशी उनका अमर प्रेम काव्य है। जिसमें प्रेम की कोमल भावनाओं का बहुत सुन्दर चित्रण है।
दिनकर का काव्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उनकी कविता भारत के लोगों में नवीन उत्साह जगाती है। सारा जीवन कठिनाइयों का विषपान करने पर भी समाज को अमृत प्रदान किया। ऐसे युग पुरूष को मेरा शत-शत नमन।

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हिन्दी दिवस

>> Saturday, September 13, 2008

हम सब हिन्दी दिवस तो मना रहे हैं

जरा सोचें किस बात पर इतरा रहें हैं ?

हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा तो है

हिन्दी सरल-सरस भी है

वैग्यानिक और तर्क संगत भी है ।

फिर भी--

अपने ही देश में

अपने ही लोगों के द्वारा

उपेक्षित और त्यक्त है

---------------------

जरा सोचकर देखिए

हम में से कितने लोग

हिन्दी को अपनी मानते हैं ?

कितने लोग सही हिन्दी जानते हैं ?

अधिकतर तो--

विदेशी भाषा का ही

लोहा मानते है ।

अपनी भाषा को उन्नति

का मूल मानते हैं ?

कितने लोग हिन्दी को

पहचानते हैं ?

-------------------------

भाषा तो कोई भी बुरी नहीं

किन्तु हम अपनी भाषा से

परहेज़ क्यों मानते हैं ?

अपने ही देश में

अपनी भाषा की इतनी

उपेक्षा क्यों हो रही है?

हमारी अस्मिता कहाँ सो रही है ?

व्यवसायिकता और लालच की

हद हो रही है ।

-------------------

इस देश में कोई

फ्रैन्च सीखता है

कोई जापानी

किन्तु हिन्दी भाषा

बिल्कुल अनजानी

विदेशी भाषाएँ सम्मान

पा रही हैं और

अपनी भाषा ठुकराई जारही है ।

मेरे भारत के सपूतों

ज़रा तो चेतो ।

अपनी भाषा की ओर से

यूँ आँखें ना मीचो ।

अँग्रेजी तुम्हारे ज़रूर काम

आएगी ।

किन्तु अपनी भाषा तो

ममता लुटाएगी ।

इसमें अक्षय कोष है

प्यार से उठाओ

इसकी ग्यान राशि से

जीवन महकाओ ।

आज यदि कुछ भावना है तो

राष्ट्र भाषा को अपनाओ

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मेरी कविता मेरी आवाज

>> Wednesday, September 10, 2008

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यादों की पिटारी

खोलकर जो बैठी रात
यादों की पिटारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी
कसक सी उठी दिल में
अपने से थी हारी
कैसे कहूँ किससे कहूँ
रात जो गुजारी
खोलकर जो बैठी रात

पहला मोती बचपन की
यादें लेकर आया
आँगन में सोई थी जो
गुड़ियाँ उठा लाया
माँ बाबा संगी साथी
सामने जो आए
जाग उठी लाखों यादें
ओठ मुसकुराए
ले जाओ बचपन तुम
बिटिया मेरी प्यारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी

दूजा मोती प्रीत का था
हाथ में जो आया
किरण जाल सपनों का
उसने था बिछाया
पीहू की पुकारों ने
शोर सा मचाया
प्रेम बीन बजने लगी
जादू सा था छाया
कानों में आ बोला कोई
आ जाओ प्यारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी

एक-एक मोती ने
यादें सौ जगाई
बिखरी सी मंजूषा
सँभाल मैं ना पाई
पागल दीवानी हो
उनके पीछे धाई
बिखरे मोती, बीती बातें
हाथ में ना आई
यादों की जमीन पर था
एक पल भी भारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी

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अध्यापक दिवस पर…..

>> Thursday, September 4, 2008


अध्यापक एक दीपक है
जो स्वयं जल कर
रौशनी फैलाता है
किन्तु उत्तर में
समाज से क्या पाता है?

देश की पौध को सँवारता है
सुन्दर संस्कारों की खाद
और स्नेह की छाया बिछाता है
किन्तु अपेक्षित विकास ना पाकर
निराश हो जाता है…

पौध को सही दिशा में
विकसित करने के लिए
काट-छाँट (कठोर व्यवहार का भी)
सहारा लेता है
किन्तु अफसोस
बिना सोचे समझे समाज
आरोप लगाता है
क्रूर और अत्याचारी जैसे
विशेषणों से सज़ाता है

उसकी ताड़ना क्या
समाज के हित में नहीं?
फिर क्यों उसे
आरोपों -आक्षेपों में
घसीटा जाता है ?
समाज से उसका
क्या देने भर का नाता है ?

अध्यापक दिवस पर
एक परिवर्तन लाओ
अध्यापकों पर विश्वास रखो
उनको उचित सम्मान दे आओ।
अपना समर्पण,अपना विश्वास
दे आओ।
वह इतने से ही सन्तुष्ट हो जाएगा
यदि इतना भी ना कर सके तो
राष्ट्र का भविष्य
कौन बनाएगा ????
कौन बनाएगा ????
कौन बनाएगा ????

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मुखौटे

>> Monday, September 1, 2008


दुनिया के बाजार में
जहाँ कहीं भी जाओगे
हर तरफ, हर किसी को
मुखौटे में ही पाओगे ।
यहाँ खुले आम मुखौटे बिकते हैं
और इन्हीं को पहन कर
सब कितने अच्छे लगते हैं

विश्वास नहीं होता --?
आओ मिलवाऊँ

ये तुम्हारा पुत्र है
नितान्त शरीफ,आग्याकारी
मातृ-पितृ भक्त
हो गये ना तृप्त ?
लो मैने इसका
मुखौटा उतार दिया
अरे भागते क्यों हो--
ये आँखें क्यों हैं लाल
क्या दिख गया इनमें
सुअर का बाल ?

आओ मिलो -
ये तुम्हारी पत्नी है
लगती है ना अपनी ?
प्यारी सी, भोली सी,
पतिव्रता नारी है पर-
मुखौटे के पीछे की छवि
भी कभी निहारी है ?

ये तुम्हारा मित्र है
परम प्रिय
गले लगाता है तो
दिल बाग-बाग
हो जाता है
क्या तुम्हे पता है
घर में सेंध वही लगाता है
ये तो दोस्ती का मुखौटा है
जो प्यार टपकाता है
और दोस्तों को भरमाता है

मुखौटे और भी हैं
जो हम सब
समय और आवश्यकता
के अनुरूप पहन लेते हैं
इनके बिना सूरत
बहुत कुरूप सी लगती है

मुखौटा तुमने भी पहना है
और मैने भी
सच तुम्हे भी पता है
और मुझे भी


फिर शिकायत व्यर्थ है
जो है और जो हो रहा है
उसके मात्र साक्षी बन जाओ
मुखौटे में छिपी घृणा, ईर्ष्या
को मत देखो
बस---
प्यारी मीठी- मीठी बातों का
लुत्फ उठाओ ।

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बिजली की परेशानी पर

>> Wednesday, August 27, 2008

बिजली की परेशानी पर
जब सवाल हमने उठाया
उन्होने मुसकुरा कर
हमें ही दोषी बताया
बोले-------
यह परेशानी भी
तुम्हारी ही लाई है
सच-सच बताओ-
ये बिजली तुमने
कहाँ गिराई है ?
--------------------

तुम्हारी बातें भी अब
दिल तक पहुँच नहीं पाती हैं
बात शुरू होते ही--
बिजली चली जाती है--


प्रतिपल आती -जाती
बिजली से दुःखी हो
हमने बिजली दफ्तर में
गुहार लगाई
विद्युत अधिकारी ने
लाल-लाल आँखें दिखाई
अजीब हैं आप--
हम पर आरोप लगा रहे हैं
अरे हम तो आपका ही
खर्च बचा रहे हैं
इस मँहगाई में
बिजली हर समय आएगी
तो बिजली का बिल देखकर
आप पर------
बिजली नहीं गिर जाएगी ?

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हे कृष्ण

>> Friday, August 22, 2008

हे कृष्ण
आज सारा भारत

पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा से
तुम्हें नमन कर रहा है ।
हे योगीराज
जितेन्द्रिय
परम ग्यानी
परम प्रिय
तुम्हारी भक्ति की धारा
एक पवित्र भाव बनकर
दिलों में बह रही है ।
किन्तु हे परम प्रिय
परम श्रद्धेय
तुमने गीता में
सबको आश्वासन क्यों दिया?
स्वयं कर्म योगी होकर भी
सबको परमुखापेक्षी
क्यों बना दिया ?
अब दुःख आने पर
लोग संघर्ष नहीं करते
तुम्हें पुकारते हैं ।
हे जितेन्द्रिय
तुम्हारे भक्त कामनाओं
के दास बन चुके हैं ।
भक्ति तो करते हैं
पर कर्म तज चुके हैं ।
अन्याय से दुखी तो होते हैं
पर उसका प्रतिकार
नहीं कर पाते ।
कब तक हम प्रतीक्षा करेंगें?
हमें बल दो कि हम
खुद अन्याय से लड़ पाएँ ।
तभी तम्हारा जन्म
दिवस मनाएँ
सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएँ
सच्ची भक्ति कर पाएँ ।
जय श्री कृष्ण

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स्वाधीनता दिवस….

>> Monday, August 18, 2008


जश्न,उत्सव
देशभक्ति गीत और भाषण
और देशभक्ति
नदारद

शहीदों को श्रद्धांजलि
ध्वजारोहण
इतिहास का गौरव गान
बड़े-बड़े वादे
बधाइयों का आदान-प्रदान
और कर्तव्यों की इति

कुछ ही देर बाद
देश को लूटने की योजनाएँ
एकता पर प्रहार
वोट की राजनीति
और कुटिल अट्टाहस

और जनता…..
नेताओं पर दोषारोपण
आरोप-प्रत्यारोप
अपने कर्तव्यों से अंजान
मेरा देश महान

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मेरे भइया

>> Saturday, August 16, 2008




मेरे भइया को संदेशा पहुँचाना
ओ चन्दा तेरी जोत बढ़े

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आओ एक इतिहास बनाएँ

>> Thursday, August 14, 2008

आओ एक इतिहास बनाएँ

वैर भाव से त्रस्त हृदयों को

शीतल चन्दन लेप लगाएँ

 

सदियों तक तड़पी मानवता

धर्म जाति की अग्नि में

मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों से

छलनी हैं सबके सीने

आओ मिलकर कोशिश कर लें

सच्चा एक इन्सान बनाएँ

 शंकर को फिर से ले आएँ

सच्चा मानव धर्म सिखाएँ

 

पश्चिम ने पूरब को घेरा

जीत रही है भौतिकता

धन के पीछे भाग रहे हैं

धक्के खाती नैतिकता

आओ अपने बच्चों को फिर

पूरब का आदर्श दिखाएँ

विवेकानन्द को फिर ले आएँ

भारत की फिर शान बढ़ाएँ

उसको विश्व विजयी बनाएँ

 

देश प्रेम की झूठी चर्चा

संसद में नेता करते हैं

लूट देश को जेबें भरते

बड़ी-बड़ी ये बातें करते

आओ इनके षड़यंत्रों को

हम सब मिलकर विफल बनाएँ

भगत सिंह के फिर ले आएँ

मिलकर अपना राष्ट्र बचाएँ

 

 

गीली मिट्टी हाथ हमारे

पूरे कर लें सपने सारे

सद्भावों का रंग ले आएँ

देश भक्ति का जल बरसाएँ

अदभुत् सुन्दर मूर्ति बनाएँ

भारत माता के चरणों में

अपनी अनुपम भेंट चढ़ाएँ

अपना गुरुत्तर भार निभाएँ

आओ एक इतिहास बनाएँ

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मँहगाई

>> Monday, August 11, 2008


रोज बढ़ जाती हैं ज़ालिम कीमतें

क्या खरीदूँ और किसका नाम दूँ


हर कदम मँहगाई का दानव खड़ा

कैसे अपने दिल को मैं आराम दूँ।

आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ


रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ

हैं सजे बाज़ार छाई रौनकें
एक चादर इनपे लाओ डाल दूँ।

आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।

जल रहा है देश इसकी आग में
अब शुभी किसको यहाँ इल्ज़ाम दूँ।

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वरदान

>> Tuesday, August 5, 2008


मैने ज़िन्दगी से
खुशी का बस..
एक पल माँगा था
उसने उदार होकर
अपार भंडार दे दिया

प्रसन्नता की बस एक
लहर माँगी थी......
उसने पूरा पारावार दे दिया
तृप्ति का,सुख का
बस एक कण माँगा था
उसने उल्लास का....
दरिया ही बहा दिया

उसकी उदारता से
अभिभूत हो गयी हूँ
और कुछ भयभीत भी
हो गयी हूँ.....
क्या इतना सुख
सँभाल भी पाऊँगी ?
आनन्दातिरेक से
पागल तो नहीं हो जाऊँगी
?

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कलम के सिपाही! तुम्हें नमन.......

>> Thursday, July 31, 2008


प्रिय पाठकों,
आज महान कहानी कार मुंशी प्रेमचन्द की जन्म तिथि है। एक महान कहानीकार को नमन करते हुए प्रस्तुत कर रही हूँ उनका संक्षिप्त परिचय।
कलम के सिपाही प्रेमचन्द जी नाम लेते ही आँखों के समक्ष एक चित्र उभरता है- गोरी सूरत, घनी काली भौंहें, छोटी-छोटी आँखें, नुकीली नाक और बड़ी- बड़ी मूँछें और मुस्कुराता हुआ चेहरा। टोपी,कुर्ता और धोती पहने एक सरल मुख-मुद्रा में छिपा एक सच्चा भारतीय। एक महान कथाकार- जिसकी तीक्ष्ण दृष्टि समाज और उसकी बुराइयों पर केन्द्रित थी। एक समग्र लेखक के रूप में उन्होने मध्यवर्गीय समाज को अपने साहित्य में जीवित किया।
सीधा- सरल जीवन जीने वाले प्रेमचन्द जी का जन्म ३१ जुलाई १८८० को लमही ग्राम में हुआ था। माता-पिता ने नाम रखा धनपत और प्यार करने वालों ने नाम दिया नवाब। पारिवारिक जीवन संघर्षों से परिपूर्ण था। बचपन में ही माँ चल बसी और नन्हें बालक को सौतेली माँ की ज्यादतियों का शिकार होना पड़ा।
घर पर प्यार के अभाव में बालक घर का आँगन छोड़ प्रकृति की गोद में जा बैठा। प्रकृति ने बाँहें फैला कर बालक को अपना संरक्षण दिया। गरीबी, घुटन, रूखेपन को धनपद ने कहकहों में उड़ा दिया और अपनी पीड़ा को लेखनी में उतारना शुरू किया। रात के अँधेरे में डिबरी लेकर बैठते और पढ़ाई के साथ-साथ साहित्य रचना करते।
जीवन का अधिकतर ग्यान जीवन की पाठशाला में सीखा।
अनेक पत्र- पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए ख्याति प्राप्त की। १९०१से इनकी लेखनी चलनी प्रारम्भ हुई तो चलती ही रही। इन्होने कथा जगत को तिलिस्म , ऐयारी और कल्पना से निकाल कर राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी भावनाओं की दुनिया में प्रवेश कराया। १९३० में 'हँस' निकाला और १९३२ में 'जागरण'।
सरकारी नौकरी में स्वाभिमान आड़े आया और त्यागपत्र देकर गाँव लौट आए। कलम चलाकर ४०-५० रपए में घर चलाने लगे। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा खी। कभी जेल नहीं गए, किन्तु सैनिकों की वाणी में जोश भरा। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से अपने विचार जन-जन में पहुँचाए।
उन्होने पहली बार कथा साहित्य को जीवन से जोड़ा और सामाजिक सत्यों को उजागर कर अपने दायित्व का निर्वाह किया। उनमें पर्याप्त जागरूकता और सूक्ष्म दृष्टि थी। उन्होने अपने युग को पहचाना । जीवन की पाठशाला में जो भी सीखा उसी को साहित्य का आधार बनाया। समाज, जीवन और भावबोध प्रेमचन्द के लिए महत्वपूर्ण बातें थीं। वे ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे जिसमें किसी का भी शोषण ना हो ।प्रेमचन्द प्रगतिशील साहित्यकार थे किन्तु उनकी प्रगतिशीलता आरोपित नहीं थी। प्रियता पर करारी चोट की, उनका विविध चित्रण किया। निर्मला उपन्यास मध्यवर्ग और उसकी कमजोरियों का कच्चा चिट्ठा है। गोदान में ग्रामीण जीवन को जीवित किया है।
उनका साहित्य एक ओर भारत की अधोगति, और दूसरी ओर भारत की भावी उन्नति के पथ पर चला है। उन्होने जिस विचारधारा का सूत्रपात किया वह थी पापाचार का निराकरण। उन्होने अपने उपन्यासों में धर्म की पोल खोली है। हिन्दू धर्म की की जीर्णशीर्णता का सुन्दर चित्रण किया व धर्म को मानवता वादी आधार प्रदान किया। उन्होने मनुष्य सेवा को ही ईश सेवा माना।
प्रेमचन्द जी ने अपने समाज की रूढ़ियों पर खुलकर प्रहार किया। उन्होने अपने उपन्यासों के द्वारा पाठकों तक ऐसी भावनाओं का सम्प्रेषण किया जिसमें जीवन के प्रति गरिमा हो। उन्होने समाज को दिशा प्रदान की। प्रेमचन्द जी ने पूँजीवाद का तीव्र विरोध किया।
नारी को प्रगतिशील बनाया तथा बाल-विवाह और अनमेल विवाह के दुष्परिणामों से समाज को परिचित कराया। निर्मला का करूण अन्त चीख-चीख कर यही कहता है। दहेज प्रथा से उन्हे चिढ़ थी। दहेज का दुष्परिणाम भी इनके उपन्यासों में मिलता है।
उन्होने किसानों की समस्याओ और उनकी कमियों को लेखनी में उतारा। मज़दूरों, युवकों, विद्यार्थियों और अछूतों को साहित्य का विषय बनाया और उनके कष्टों को वाणी दी।
शोषण,गुलामी,ढ़ोंग, दंभ,स्वार्थ रूढ़ि, अन्याय,,अत्याचार सबकी जड़ें खोदीं और मानवता की स्थापना की।
गोदान, मंगलसूत्र निर्मला सेवासदन इनकी अमर कृतियाँ हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानियाँ हिन्दी साहित्य का श्रृंगार हैं। बड़े भाई साहब, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, कफ़न,आज भी प्रासंगिक हैं। समाज का हर वर्ग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ उनमें जीवित है।
आर्थिक समस्याएँ उन्हें फिल्म जगत में ले गईं किन्तु समझौता करना उनका स्वभाव नहीं था। वापिस आ गए और संघर्षों से भरा जीवन जीते रहे । ८ अक्टूबर १९३६ को मात्र ५६ वर्ष की अवस्था में पंचभौतिक शरीर को त्याग परम तत्व में विलीन हो गए।
प्रेमचन्द की कथाएँ और उनके उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। जब-जब उन्हे पढ़ा जाएगा, जन मानस उन्हे अपने बहुत करीब ही पाएगा। उस पवित्र आत्मा को मेरा शत-शत नमन।

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परिवर्तन

>> Monday, July 28, 2008


परिवर्तन सृष्टि का नियम है

परिवर्तन जीवन का क्रम है

परिवर्तन एक अकाट्य सत्य है

फिर भी ----

हम परिवर्तन को स्वीकार

क्यों नहीं कर पाते हैं ?

जरा-जरा सी बात पर

क्यों इतना घबराते हैं ?


बचपन में अबोध बच्चा

जब माता की छाती से चिपक

तोतली जुबान में प्यार जताता है

माँ-बाप की आँखों में तब

तृप्ति एवँ सन्तोष का

भाव उभर आता है

और जब वह बड़ा होकर

पत्नी के परिरम्भण में

असीम सुख पाता है

उसी की हाँ में हाँ मिलाता है

तब माँ-बाप को ये

समझ क्यों नहीं आता है

कि-- परिवर्तन सृष्ट का नियम है


जीवन का बस एक क्रम है

बाप के बीमार होने पर

बहू का बड़बड़ाना

बेटे का दवा लाने में

बहाने बनाना सुनकर

क्यों अतीत में लौट आते हैं

परिवर्तन को सहज़

स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?

इतना शोर क्यों मचाते हैं?


बस मान लो यह कि

यह एक अकाट्य सत्य है

इसको स्व की सीमाओं में

कैद ना करना बेकार है

यह ईश की अनोखी देन

और उसका अनुपम

उपहार है ।

सृष्टि का श्रृंगार है ।

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मन के पंख नहीं होते पर

>> Friday, July 25, 2008


मन के पंख नहीं होते पर
फिर भी मन उड़ जाता है
व्याकुल पंखों को फैलाकर
नील गगन में जाता है
कभी दिखाता सुन्दर सपने
उर उम्मीद जगाता है
घोर निशा के तिमिरांचल में
सूर्य किरण बिखराता है ।

असफ़लता की घोर निराशा
जीवन में जब आती है
विगत सुःखों की झिलमिल झाँकी
आँखों में तिर जाती है
देखे थे जो सुन्दर सपने
उनकी याद सताती है।
चिर वियोग की तीव्र वेदना
आँखों में तिर जाती है

यह पागल सा हो मतवाला
तृष्णा- जाल बिछाता है
अपने पंखों संग बाँधकर
दूर बहुत ले जाता है
देख नयन का सुन्दर उत्सव
हृदय- हर्षित हो जाता है
तभी अचानक क्रूर सत्य भी
हँसी छीन ले जाता है

कभी सोचती त्वरित गति से
पिंजर एक बनाउँ मैं
चंचल गति को इसकी रोकूँ
अपना दास बनाऊँ मैं
किन्तु हृदय से ध्वनि ये आती
मन को लाड़- लड़ाऊँ मैं
भूल सत्य को इसके संग ही
उन्मत्त दौड़ लगाऊँ मैं

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घिन आने लगी है 'घोड़ामण्डी' से

>> Wednesday, July 23, 2008


लगते थे ...
.बहुत अच्छे तुम
बातें तुम्हारी .....
सीधे दिल के अंदर
नसों में खून ...
..उबलने लगता था
कुछ भी करने को आतुर
चिलचिलाती धूप में
पसीने से लथपथ ..
आते थे जब भी ..
भटकते हुए मांग कर
किसी से 'लिफ्ट'
अथवा पैदल ...

तुम्हारा भूखा प्यासा
पदयात्रा से थका चेहरा
कर देता था व्याकुल
हर गावं में मां को ..
दौड़ पड़ती थी बहना
ले पानी का गिलास
भाभी टांक देती थी बहुधा
तुम्हारे ‘फटे हुए कुरते’ के बटन
बाबा सोचते थे हरबार
देने को एक नया कुरता
मुझसे पहले ….. तुम्हें
सीखा मैंने जिज्ञासु
तुम्हारे थैले में भरी किताबों से
नैतिकता, राष्ट्रप्रेम, त्याग, समाजसेवा
इतिहास और आदर्श का हर पाठ
उत्प्रेरित हो तुमसे ही ....……………..
........................
किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें…
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....

धूलधूसरित मां .....
घंटों देखती रहती है
नीले, पीले, लाल, हरे,
केसरिया झण्डों को..
विस्फारित नेत्रों से ....
आज सुनती है जब
'घोड़ामण्डी' के भाव
थूक देती है पिच्च से .
.और उसके चेहरे पर
पढ़ते हुए भाव …..
मुझे घिन आने लगी है
तुम्हारी नौटंकी से…
तुम्हारे चेहरे से ....तुमसे
....

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टीस सी जग जाती है

>> Monday, July 21, 2008


मन का तहखाना

कैद है जिसमें

असंख्य रिश्ते--

जिनको आज तक

नाम नहीं दे पाई

किन्तु---आज भी-

-हर रिश्ते से बढ़कर

हर कदम पर

हर पल

बहुत करीब रहते हैं

अकेलेपन में

उनकी परछाई

सदा आस -पास

मँडराती रहती है

अदृश्य बाँहें-

सदा संरक्षण देती

तथा प्यार से

थपथपाती हैं

कभी-कभी अचानक

अतीत प्रत्यक्ष होकर

आसक्ति जगाता है

बीते दिनों को

फ़िर से बुलाता है

प्रेमांगन में-

भीनी सी खुशबू

तीव्रता से आती है

और दूर ले जाती है

अलभ्य को ---

पाने की कामना

बलवती हो जाती है

और --दिल के किसी कोने में

एक टीस सी जग जाती है ।

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विभिन्नता में एकता

>> Thursday, July 17, 2008



मेरे देश की विशेषता

हमेशा यही पाठ पढ़ा-

और यही पढ़ाया

किन्तु प्रत्यक्ष में

एकता का कहीं

दर्शन ना पाया


कभी धर्म के नाम पर

खुले आम घर जले


फिर भी हमने……

.धर्म निरपेक्षिता की

डींगे हाँकी….


जाति के आधार पर आरक्षण

युवा शक्ति का विद्रोह

हड़तालें,तोड़-फोड़

आत्मदाह की घटनाएँ

हमारा कलेजा चीर गई

फिर भी हमने

समानता की दुहाई दी


प्रान्तीयता के आधार पर


राष्ट्रीयता के हृदय पर

एक बड़ा आघात

और सारा देश चुप….

.पद का सही उम्मीदवार

अपमान सह गया

और राष्ट्र मूक रह गया


और आज……

प्रान्तीयता का राक्षस

आतंक मचा रहा है

चीखों और पुकारों से

दिल घबरा रहा है

नफरत की आँधी

सब कुछ उड़ा रही है


अपनी सन्तान के

कुकृत्यों पर

उसका अंग-अंग

पीड़ा से कराह रहा है

ना जाने कौन

ये जहर फैला रहा है

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मैं और मेरी परछाई

>> Tuesday, July 15, 2008


हम दो हैं-
मैं और मेरी परछाई ।
जब भी मैं –
परिस्थितियों में
सहज होना चाहती हूँ -
मेरी परछाई
बहुत दूर भाग जाती है ।
ना जाने उसे कब और कैसे
अवसर मिल जाता है और
वह तुमसे मिल आती है ।

जब भी मैं काम में
मन लगाती हूँ -
वो कल्पना की
रंगीन चादर बिछाती है ।
तितली की तरह इधर-उधर
मँडराती है ।

जब मैं किसी मीटिंग में बैठ
गम्भीरता से सिर हिलाती हूँ-
वह शरारत से गुदगुदाती है ।
हाथ पकड़ कर बाहर ले आती है ।
जाने कैसे-कैसे बहाने बनाकर
अपनी बातों को सही ठहराती है ।

जब भी मैं जीवन को
सहज अपनाती हूँ --
वह विरोध कर देती है ।

मैं इसे कैसे समझाऊँ ?
जान नहीं पाती हूँ ।
घूर कर , डाँट कर
झीक कर रह जाती हूँ ।
तुम इस परछाई को
सच ना समझना ।
इसके साथ कोई ख्वाब
ना बुन ना ।
क्योकि ये केवल परछाई है
सच नहीं ।
कभी भी धोखा दे जायेगी
जब मेरी ही ना हुई तो
तुम्हारी क्या खा़क हो पाएगी ?

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कुछ प्रश्न

>> Sunday, July 13, 2008




कुछ प्रश्न उठ रहे हैं
मेरे ज़हन में--
उत्तर दोगे?
सच-सच
तुम्हारी दृष्टि में
प्रेम क्या है
किसी से जुड़ जाना
या उसे पा लेना
वैसे पाना भी एक प्रश्न है
उसके भी कई अर्थ हैं
कैसे पाना--
शरीर से- या मन से
यदि शरीर से--
तो एक दूसरे को पाकर भी
परिवार पूर्ण क्यों नहीं हो पाते-
यदि मन से--
तो सारा आडम्बर क्यों -
इन चिरमिराते साधनों से
तुम किसे जीतना चाहते हो-
उस मन को-
जो स्वछन्दता भोगी है
या उस तन को
जो भुक्तभोगी है ?
सोचो तुम्हारा
गंतव्य क्या है ?
ये व्याकुलता
ये तड़प -
किसके लिए है ?
यदि कुछ पाना ही नहीं
तो मिलें क्यों ?
सब कुछ तो मिल रहा है
सामीप्य,संवेदना

साहचर्य और प्रेम भी
फिर क्या अप्राप्य है?
क्यों बेचैन हो?


मैं तो सन्तुष्ट हूँ
जो मिल रहा है
उससे पूर्ण सन्तुष्ट
हाँ कुछ इच्छाएँ जगती हैं
किन्तु मैं इन्हें
महत्व नहीं देती
मेरी दृष्टि में
ये मूल्यहीन हैं
मेरा प्राप्य
आत्मिक सुख है
मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?

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कवि तुम पागल हो--?

>> Wednesday, July 9, 2008

कवि तुम पागल हो--?

सड़क पर जाते हुए जब
भूखा नंगा दिख जाता है
हर समझदार आदमी
बचकर निकल जाता है
किसी के चेहरे पर भी
कोई भाव नहीं आता है
और तुम---?
आँखों में आँसू ले आते हो
जैसे पाप धोने को
आया गंगाजल हो--
कवि तुम पागल हो ---?

जीवन की दौड़ में
दौड़ते-भागते लोगों में
जब कोई गिर जाता है
उसे कोई नहीं उठाता है
जीतने वाले के गले में
विजय हार पड़ जाता है
हर देखने वाला
तालियाँ बजाता है
पर-- तुम्हारी आँखों में
गिरा हुआ ही ठहर जाता है --
जैसे कोई बादल हो--
कवि-- तुम पागल हो--?

मेहनत करने वाला
जी-जान लगाता है
किन्तु बेईमान और चोर
आगे निकल जाता है
और बुद्धिजीवी वर्ग
पूरा सम्मान जताता है।
अपने-अपने सम्बन्ध बनाता है
पर तुम्हारी आँखों में
तिरस्कार उतर आता है
जैसे- वो कोई कातिल हो
कवि? तुम पागल हो --

सीधा-सच्चा प्रेमी
प्यार में मिट जाता है
झूठे वादे करने वाला
बाजी ले जाता है
सच्चा प्रेमी आँसू बहाता है
तब किसी को भी कुछ
ग़लत नज़र नहीं आता है
पर--तुम्हारी आँखों में
खून उतर आता है
उनका क्या कर लोगे
जिनका दिल दल-दल हो
कवि तुम पागल हो

धर्म और नैतिकता की
बड़ी-बड़ी बातें करने वाला
धर्म को धोखे की दुकान बनाता है
तब चिन्तन शील समाज
सादर शीष नवाता है
सहज़ में ही--
सब कुछ पचा जाता है
और तुम्हारे भीतर
एक उबाल सा आजाता है
लगता है तुमको क्यों
चर्चा ये हर पल हो ?
कवि तुम पागल हो --?

ये दुनिया तो ऐसी है
ऐसी रहेगी
तुम्हारी ये आँखें यूँ
कब तक बहेंगी?
पोछों अब इनको
अगन को जगा दो
सृष्टा बने हो तो
अमृत बहा दो
उठाओ कलम और
शक्ति बहा दो

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अमर प्रेम……

>> Sunday, July 6, 2008


असंख्य लहरों से तरंगित
जीवन उदधि
अब अचानक शान्त है
एकदम शान्त

घटनाओं के घात-प्रतिघात
अब आन्दोलित नहीं करते
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है

कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं

बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये त मेरा प्राप्य नहीं था

मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी
पता नहीं क्यों तुम
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही वस्तु पर
अधिकार की ये कैसी कामना है

जो तुम्हे अशान्त किए है
भूल कर सब कुछ
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो
और सदा के लिए
समर्पित हो जाओ
संशयों से मुक्ति पाजाओ।

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ये क्या हुआ…….

>> Sunday, June 29, 2008


मेरी एक झलक पर

बाग-बाग होने वाले

मेरे प्यारे पिता !

तुम इतना क्यों बदल गए?

मुझे भरपूर प्यार और

आराम देने वाले तुम..

हाँ तुम ही तो थे

मेरी एक-एक पीड़ा पर

तुम्हारी आँखों से

आँसुओं का सागर

बह जाता था

उन दूधिया वात्सल्य

भरी आँखों में आज

आक्रोष क्यों आगया ?

तुम्हारी अँगुली पकड़कर

बचपन में चलना सीखा

तुम्हारी स्नेहिल छाया में

सदा स्वयं को सुरक्षित पाया

मेरा एक मात्र सहारा

बस तुम ही तो थे

माँ से भी बस मेरा

भूख का ही नाता था

पर तुमसे तो मेरा रिश्ता

अभिन्न और अटूट था

और तुम भी

हाँ तुम भी मेरे लिए

सदा,सर्वदा प्रस्तुत रहे

फिर आज ये क्या हो गया?

मेरे पिता तुम

मेरे रक्षक से

मेरे घातक कैसे हो गए ?

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कभी-कभी ......

>> Wednesday, June 25, 2008

कभी-कभी हम सब
साथ रहते हुए भी -
कितने अज़नबी हो जाते हैं ?
एक दूसरे की व्यथा, वेदना,पीड़ा,
समझ ही नहीं पाते हैं ?
वैसे हम सगे हैं और अपने भी-
फिर भी -
एक दूसरे को
तनाव, चुभन व दर्द
ही क्यों दे जाते हैं ?
ये सच है कि-
दिल में प्रधान प्रेम ही है-
फिर भी ------
उपेक्षित और असुरक्षित
क्यों हो जाते हैं ?
एक दूसरे को समझना
क्या इतना कठिन काम है ?
फिर जन्मों का बन्धन-
क्यों ठहराते हैं ?
कहीं अनेक जन्मों से-
उलझते तो नहीं जा रहे हैं ?
करीब आने की धुन में-
दूर तो नहीं जा रहे हैं ?
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं -
जिनके उत्तर कभी नहीं मिलते ।
इसीलिए दिल के ऑंगन में-
सुरभित- सुन्दर फूल नहीं खिलते ।

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