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कमलासना माँ!

>> Wednesday, January 20, 2010


माँ!

तुम कब तक यूँ ही

कमलासना बनी

वीणा- वादन करती रहोगी?

कभी-कभी अपने

भक्तों की ओर

भी तो निहारो

देखो--

आज तुम्हारे भक्त

सर्वाधिक उपेक्षित

दीन-हीन जी रहे हैं

भोगों के पुजारी

महिमा-मंडित हैं

साहित्य संगीत

कला के पुजारी

रोटी-रोज़ी को

भटक रहे हैं

क्या अपराध है इनका-?

बस इतना ही- -

कि इन्होने

कला को पूजा है?

ऐश्वर्य को

ठोकर मार कर

कला की साधना

कर रहे हैं ?

कला के अभ्यास में

इन्होने

जीवन दे दिया

किन्तु लोगों का मात्र

मनोरंजन ही किया ?


माँ!

आज वाणी के पुजारी

मूक हो चुके हैं

और वाणी के जादूगर

वाचाल नज़र आते हैं

आज कला का पुजारी

किंकर्तव्य-मूढ़ है

कृपा करो माँ--

राह दिखाओ

अथवा ----

हमारी वाणी में ही

ओज भर जाओ

इस विश्व को हम

दिशा-ग्यान कराएँ

भूले हुओं को

राह दिखाएँ

धर्म,जाति और

प्रान्त के नाम पर

लड़ने वालों को

सही राह दिखाएँ

तुमसे बस आज

यही वरदान पाएँ

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