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मेरी तलाश

>> Wednesday, June 27, 2007


बहुत सारे प्रश्न आज मुझे घेरे हैं ।
संदेह के बादल हर ओर मेरे हैं ।
आज मैं फिर उसी मोड़ पर आ गयी हूँ ।
जहाँ से हर रास्ता बन्द हो जाता है ।
सारे प्रयास ? इतने विवाद ?
पर निष्कर्ष वही ??????
ओह !
ये कैसा अन्धकार है ?
जो बार-बार घिर आता है ।
और हर बार मुझे निरूत्तर
कर देता है ?
मैं थक चुकी हूँ
इन प्रश्नों से ।
आखिर कोई हमेशा
दोस्त क्यों नहीं रह पाता ?
स्वार्थ, लालच में ही क्यों
उभरता है हर नाता ?
कुछ असमंजस,कुछ दुविधा,
किन्तु उत्तर केवल एक ।
मेरी तलाश क्या
कभी खत्म होगी ?

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मेरे मन

>> Sunday, June 24, 2007


ऒ मेरे मन
अब तू भटकना छोड़ ।
कितना भटकेगा ?
कब तक भटकेगा ?
जहाँ भी तू सुख की
तलाश में जाता है-
वे सब दुख के साधन हैं ।
उनसे सुख की अपेक्षा क्यों ?
यह भ्रम और ना पाल ।
वैसाखियों के सहारे
चलना छोड़ दे ।
आत्मबल का सम्बल ले ।
और आगे बढ़ जा ।
और अगर सहारा ही चाहिए-
तो उस अविनाशी ,
सदा आनन्द स्वरूप का ले ।
जो सदा-सर्वदा तेरे साथ है ।
जो कभी तुझसे अलग नहीं ।
जो हर क्षण तुझे सँभालता है ।
लौटकर भी तो वहीं आना है ।
फिर----------
ये भटकन क्यों ?
चल आगे बढ़ जा ।
ये तेरा गंतव्य नहीं ।
केवल मार्ग के मोहक
दृश्य हैं ।
जो तुझे बहका रहे हैं ।
तू इनमें ना भटक ।
बस आगे बढ़ जा ।
आगे और-आगे ।

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एक वृक्ष

>> Saturday, June 23, 2007


एक वृक्ष है मेरे आँगन में
घना, छायादार,
फल फूलों से लदा ।
झूमता-इतराता ।
सुख-सम्पन्नता बरसाता ।
हम सब पर प्यार लुटाता ।
जाड़ा-गर्मी -बरसात ,
सभी से हमें बचाता ।
और सदा मुस्कुराता ।
हर मुसीबत, हर तकलीफ को,
चुटकियों में उड़ाता ।
उसकी स्नेहिल छाया में-
सारा घर आश्रय पाता ।
दादा-दादी की गोद में
मैं फूला नहीं समाता ।
मेरे पूज्य, मेरे भय त्राता
दो आशीष रहूँ मुसकाता ।

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जीवन

>> Friday, June 22, 2007


जीवन
जीवन क्या है ?
आशाऒं- निराशाऒं का
क्रीड़ास्थल ।
एक आती है,
दूसरी जाती है ।
एक सपने जगाती है ।
कोमल भावनाऒं की
कलियाँ खिला जाती है ।
मन्द- मन्द बयार बन
उन्हें सहलाती है ।
मन मयूर खुशी से
नाचने लगता है ।
किन्तु तभी---
दूसरी लहर आती है ।
मौसम बदलता है ।
बयार की गति बढ़ जाती है ।
तूफान के झोंके आते हैं ।
हर कली को गिराते हैं ।
बहारों का मौसम
पतझड़ में बदल जाता है ।
सुख- दुःख का जीवन से
बस इतना ही नाता है ।

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ek vardaan

>> Thursday, June 21, 2007


मैने ज़िन्दगी से खुशी का
बस एक पल माँगा था ,
उसने उदार होकर
अपार भंडार दे दिया ।
प्रसन्नता की बस एक
लहर माँगी थी ,
उसने पूरा पारावार
दे दिया ।
तृप्ति का ,सुख का
बस एक कण माँगा था ,
उसने उल्लास का दरिया
ही बहा दिया ।
उसकी उदारता से
अभिभूत हो गयी हूँ ,
और कुछ भयभीत भी
हो गयी हूँ ।
क्या इतना सुख
सँभाल भी पाऊँगी ?
आनन्दातिरेक से
पागल तो नहीं
हो जाऊँगी ?

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जब भी मैं तुम्हें पा जाती हूँ
आनन्द के सागर में डूब जाती हूँ।
मन्द मन्द मुस्कुराती हूँ ।
और ठहाके भी लगाती हूँ ।
पर ,,,,,,,,,,
उस खुशी को आत्मसात
नहीं कर पाती हूँ ।
चेतना झटका देती है ।
और मुझसे पूछती है -
कहाँ और किस दिशा में
जा रही हूँ ?खुशी की ये कैसी तलब है ?
जिसका हर द्वार दुखों के
गलियारों से होकर
जाता है।
भटकता निराश मन
केवल क्षण भर को ही
चैन पाता है ।
और फिर ---
सवालों में घिर जाता है ।
फिर सवालों में घिर जाता है ।
तुम जिसे पाना चाहते हो ,
वह मेरा लक्ष नहीं है ।
पता नहीं ये भटकन ,
कब तक चलेगी ?
सुक की मृग तृष्णा
कब तक छलेगी ?




सुकुन की तलाश में
बेचैनी क्यों पा रही हूँ ?

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