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नव वर्ष

>> Monday, December 31, 2007


नव वर्ष की
स्नेहिल दस्तक
उर आनन्द जगाती है
बीत गया जो वर्ष पुराना
उसको राह बताती है
नव उल्लास समाता उर में
नव उमंग लहराती है

आँखों में हैं कितने सपने
जीवन को महकाने के
बीती बातों को विस्मृत कर
नव उत्साह जगाने के

गत अतीत की मीठी यादें
आँखों में लहराती हैं
खोया-पाया किसने क्या-क्या
फिर उनको दोहराती हैं

ले अतीत की सुन्दर यादें
भावी को चमकाएँ हम
स्वागत करें नव-आगन्तुक का
कलियाँ राह बिछाएँ हम

संकल्पों में दृढ़ता लाएँ
नव योजनाएँ जीवन में
पीड़ा -शोषण दूर भगा दें
स्व का लोभ भुलाएँ हम

नव वर्ष में नव-उम्मीदें
नव-संकल्प जगाएँ हम
आओ बन्धु नव वर्ष में
जीवन नया बनाएँ हम

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बीत रहा है जीवन पल-पल

>> Friday, December 28, 2007


बीत रहा है जीवन पल-पल
समय हाथ से छूट रहा
आने वाले से पहले ही
कोई पीछे छूट रहा

आए कितने वर्ष यहाँ पर
कुछ भी हाय नहीं किया
इतने वर्षों के जीवन में
कुछ भी हासिल नहीं हुआ

खाना-पीना मौज मनाना
इसको ही जीवन माना
पर-सेवा या पर पीड़ा को
नहीं कभी भी पहचाना

आएगा एक वर्ष और भी
जागेंगें कितने सपने
किन्तु भोग में डूबी आँखें
देखेंगीं अपने सपने

एक-एक पल शुष्क रेत सा
जीवन-घट से छूट रहा
फिर भी इस दुनिया से देखो
मोह बन्ध ना छूट रहा

जाता है जीवन से कोई
कोई दौड़ा आता है
आने-जाने के इस क्रम में
जीव भ्रमित हो जाता है

लगता है कल सुख आएगा
स्वप्न पूर्ण हो जाएगा
मृगतृष्णा में भटका मानव
जाने कब सुख पाएगा ?
आओ अब कुछ ऐसा सोचें
चिर आनन्द को पा जाएँ
स्व से हटकर पर की सोचें
जीवन सफल बना जाएँ

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कवि तुम पागल हो--?

>> Saturday, December 8, 2007


कवि तुम पागल हो--?

सड़क पर जाते हुए जब
भूखा नंगा दिख जाता है
हर समझदार आदमी
बचकर निकल जाता है
किसी के चेहरे पर भी
कोई भाव नहीं आता है
और तुम---?
आँखों में आँसू ले आते हो
जैसे पाप धोने को
आया गंगाजल हो--
कवि तुम पागल हो ---?

जीवन की दौड़ में
दौड़ते-भागते लोगों में
जब कोई गिर जाता है
उसे कोई नहीं उठाता है
जीतने वाले के गले में
विजय हार पड़ जाता है
हर देखने वाला
तालियाँ बजाता है
पर-- तुम्हारी आँखों में
गिरा हुआ ही ठहर जाता है --
जैसे कोई बादल हो--
कवि-- तुम पागल हो--?

मेहनत करने वाला
जी-जान लगाता है
किन्तु बेईमान और चोर
आगे निकल जाता है
और बुद्धिजीवी वर्ग
पूरा सम्मान जताता है।
अपने-अपने सम्बन्ध बनाता है
पर तुम्हारी आँखों में
तिरस्कार उतर आता है
जैसे- वो कोई कातिल हो
कवि? तुम पागल हो --

सीधा-सच्चा प्रेमी
प्यार में मिट जाता है
झूठे वादे करने वाला
बाजी ले जाता है
सच्चा प्रेमी आँसू बहाता है
तब किसी को भी कुछ
ग़लत नज़र नहीं आता है
पर--तुम्हारी आँखों में
खून उतर आता है
उनका क्या कर लोगे
जिनका दिल दल-दल हो
कवि तुम पागल हो

धर्म और नैतिकता की
बड़ी-बड़ी बातें करने वाला
धर्म को धोखे की दुकान बनाता है
तब चिन्तन शील समाज
सादर शीष नवाता है
सहज़ में ही--
सब कुछ पचा जाता है
और तुम्हारे भीतर
एक उबाल सा आजाता है
लगता है तुमको क्यों
चर्चा ये हर पल हो ?
कवि तुम पागल हो --?

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हम और तुम

>> Saturday, November 17, 2007



हम और तुम
सदैव एक दूसरे
की ओर आकर्षित
कभी तृप्त,कभी अतृप्त
कभी आकुल,कभी व्याकुल
किसी अनजानी कामना से
बढ़ते जा रहे हैं ----

मिल जाएँ तो विरक्त
ना मिल पाएँ तो अतृप्त
कभी रूष्ट, कभी सन्तुष्ट
कामनाओं के भँवर में
उलझते जा रहे हैं --

सामाजिक बन्धनों से त्रस्त
मर्यादा की दीवारों में कैद
सीमाओं से असन्तुष्ट
स्वयं से भी रूष्ट
दुःख पा रहे हैं --

निज से भी अनुत्तरित
विचारों से परिष्कृत
हृदय से उदार
भीतर से तार-तार
कहाँ जा रहे हैं ?

चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
सारे द्वन्द्व जा रहे हैं--
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --

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हमें तो लूट लिया--

>> Saturday, November 10, 2007


हमें तो लूट लिया मिल के इन घोटालों ने
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने

हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर लड़वाते हैं
पीछे रहकर के ये दंगे बहुत फैलाते हैं
हिन्दू मरते हैं कभी मुस्लिम कुचल जाते हैं
मीटिंग में बैठ कर ये दावतें उड़ाते हैं
कभी हिन्दू कभी मुस्लिम तुम्हें
तड़पता देश है ये दावतें उड़ाते हैं
ज़हर को बाँटकर ये मौज़ खुद मनाते हैं
फँस ना जाना कभी तुम इनकी चालों में
ऊँची कुर्सी वालों ने बेईमान चालों ने

पाँच सालों में केवल एक बार आते हैं
झूठी वादे और झूठी कसमें खाते हैं
बड़े-बड़े कामों के सपने हमें दिखाते हैं
जन-जन की सेवा में खुद को लगा बताते हैं
भोली सूरत से सारे लोगों को बहकाते हैं
हाथों को जोड़ते मस्तक कभी झुकाते हैं
गरीब लोगों को ये झूठे स्वप्न दिखाते हैं
समझ ना पाए कोई ऐसा जाल बिछाते हैं
धोखा ना खाना भाई दिन के इन उजालों में
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने

संसद में बैठकर हल्ला बहुत मचाते हैं
कभी कुर्सी कभी टेबल को पटक जाते हैं
बहस के नाम पर ये शोर भी मचाते हैं
लड़ते हैं ऐसे जैसे बच्चे मचल जाते हैं
सभी चीज़ों पे ये टैक्स खूब लगाते हैं
दिखाते ख्वाब सस्ते का और मँहगाई बढ़ाते हैं
आरक्षण के नाम पर ये बेवकूफ बनाते हैं
कभी इनको-कभी उनको आरक्षित कर जाते हैं
पढ़ने वालों की मेहनत बह रही है नालों में
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने
हमें तो लूट लिया मिलके इन -----

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त्योहारों का मौसम

>> Tuesday, November 6, 2007


लो आगया फिर से
त्योहारों का मौसम
उनके लूटने का
हमारे लुट जाने का मौसम
बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है
धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह
व्यापारी की आँखों में
हज़ारों सपने हैं
ग्राहकों को लूटने के
सबके ढ़ग अपने हैं
कोई सेल के नाम पर
कोई उपहार के नाम पर
कोई धर्म के नाम पर
आकर्षण जाल बिछा रहा है
और बेचारा मध्यम वर्ग
उसमें कसमसा रहा है
उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं ।
सजी हुई दुकानें
और जगमगाते मकान
उसे मुँह चिढ़ाते हैं
सोचने लगती हूँ मैं
ये त्योहार क्यूँ आते हैं ?

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दीपावली

>> Thursday, November 1, 2007


दीपावली नाम है प्रकाश का
रौशनी का खुशी का उल्लास का
दीपावली पर्व है उमंग का प्यार का
दीपावली नाम है उपहार का
दीवाली पर हम खुशियाँ मनाते हैं
दीप जलाते नाचते गाते हैं
पर प्रतीकों को भूल जाते हैं ?
दीप जला कर अन्धकार भगाते हैं
किन्तु दिलों में -
नफरत की दीवार बनाते है ?
मिटाना ही है तो -
मन का अन्धकार मिटाओ
जलाना ही है तो -
नफ़रत की दीवार जलाओ
बनाना ही है तो -
किसी का जीवन बनाओ
छुड़ाने ही हैं तो -
खुशियों की फुलझड़ियाँ छुड़ाओ
प्रेम सौहार्द और ममता की
मिठाइयाँ बनाओ ।
यदि इतना भर कर सको आलि

तो खुल कर मनाओ दीपावली

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आधुनिक नारी

>> Wednesday, October 31, 2007


आधुनिक नारी

बाहर से टिप-टाप

भीतर से थकी-हारी

।सभ्य, सुशिक्षित, सुकुमारी

फिर भी उपेक्षा की मारी

।समझती है जीवन में

बहुत कुछ पाया है

नहीं जानती-ये सब

छल है, माया है।

घर और बाहर

दोनों मेंजूझती रहती है।

अपनी वेदना मगर

किसी से नहीं कहती है

।संघर्षों के चक्रव्यूह

जाने कहाँ से चले आते हैं ?

विश्वासों के सम्बल

हर बार टूट जाते हैं

किन्तु उसकी जीवन शक्ति

फिर उसे जिला जाती है

।संघर्षों के चक्रव्यूह से

सुरक्षित आ जाती है ।

नारी का जीवन

कल भी वही था-

आज भी वही है ।

अंतर केवल बाहरी है ।

किन्तुचुनौतियाँ

हमेशा सेउसने स्वीकारी है

।आज भी वह

माँ-बेटी तथा

पत्नी का कर्तव्य निभा रही है ।

बदले में समाज से

क्या पा रही है ?

गिद्ध दृष्टि

आज भी उसेभेदती है ।

वासना आज भी रौंदती है ।

आज भी उसे कुचला जाता है ।

घर, समाज व परिवार मेंउसका

देने का नाता है ।

आज भी आखों में आँसू

और दिल में पीड़ा है ।

आज भी नारी-श्रद्धा और इड़ा है ।

अंतर केवल इतना है

कल वह घर की शोभा थी

आज वह दुनिया को महका रही है ।

किन्तु आधुनिकता के युग में

आज भी ठगी जा रही है ।

आज भी ठगी जा रही है

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मुसाफ़िर

>> Thursday, October 25, 2007

राह पर चल तो रही हूँ


लक्ष्य की ना कुछ खबर है


आँख में सपने बहुत हैं


डगमगाती पर नज़र है


ज़िन्दगी के इस सफ़र में


कैसे-कैसे मोड़ आए


लक्ष्य का ना कुछ पता था


पाँव मेरे डगमगाए


राह की रंगीनियों ने


था बहुत मुझको पुकारा


उस मधुर आवाज़ से भी


कर लिया अक्सर किनारा


कंटकों की राह चुन ली


किन्तु फिर भी मैं ना हारा


हाँ कभी आवाज़ कोई


प्रेम की दी जब सुनाई


पाँव मेरे रूक गए थे


राह में थी डगमगाई


ज़िन्दगी के स्वर्ण के पल


राह से मैने उठाए


और दामन में समेटे


राह में जो काम आए


तक्त मीठे और खट्टे


राह में कितने मिले हैं


शूल के संग फूल भी तो


राह में अक्सर बिछें हैं


अब तो आ पहुँचा समापन


दिख रहा रौशन उजाला


पाँव अब क्यों काँपते हैं


हृदय में जब है उजाला


बावले अब धीर धर ले


सामने अब मीत प्यारा


मिल गया तुमको किनारा

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>> Wednesday, October 24, 2007

अनुभूति में मेरी रचनाएँ

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meri परछाईh

>> Thursday, October 18, 2007

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कभी-कभी

>> Sunday, October 14, 2007


कभी-कभी सब कुछ
अच्छा क्यों लगने लगता है ?
बिना कारण कोई
सच्चा क्यों लगने लगता है ?
क्यों लगता है कि
कुछ मिल गया ?
अँधेरे में जैसे चिराग जल गया ?
हवाओं की छुवन
इतनी मधुर क्यों लगने लगती है ?
पक्षी की चहचहाहट
क्यों मन हरने लगती है ?
मन के आकाश में
रंग कहाँ से आ जाते हैं ?
किसी के अंदाज़
क्यों इतना भा जाते हैं ?
भीनी-भीनी खुशबू
कहाँ से आजाती है ?
और चुपके से
हर ओर बिखर जाती है ?
ना जाने कौन
कानों में चुपके से
कुछ कह जाता है ।
जिसे सुनकर-
मेरा रोम-रोम
मुसकुराता है ।

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मुसाफ़िर

>> Thursday, October 4, 2007


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

राह में चल तो रहा हूँ
पर लक्ष्य हीन -
गंतव्य धूमिल है
एक भीड़ के पीछे
चलता जा रहा हूँ
कभी काँटा चुभ जाता है
गति में अवरोध आजाता है
जब फूल मुसक्कुराता है
हृदय प्रफुल्लित हो जाता है
ऐसे अनेकों मोड़ आए हैं
जहाँ मेरे कदम डगमगाए हैं ।
राह की रंगीनियों से
आँखें चुँधियाई हैं ।
पर कुछ पल ठहर कर
राह ही अपनाई है ।
हर एक मोड़ पर
दिल मेरा ललचाया है
यात्रा में बार-बार
अवरोध गया आया है
फिर भी उठा हूँ
आगे बढ़ा हूँ
सतत् गतिशील
संघर्षमय , विकासोन्मुख
क्योंक मैं जानता हूँ
मैं हमेशा विजित हुआ हूँ
और होता रहूँगा ।
कर्म में मेरी निष्ठा
असीमित और अपरिमित है
मै अज़र-अमर अविनाशी हूँ
अपराजित, दुर्जेय हूँ
एक अनन्त यात्रा का पथिक
एक मुसाफ़िर

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मेरी कविता मेरी आवाज mai

>> Tuesday, October 2, 2007

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जीवन डगर

>> Saturday, September 29, 2007


जीवन डगर के बीचो-बीच
भीड़ में खड़ी देख रही हूँ --
आते-जाते लोग-
दौड़ते वाहन
कानों को फोड़ते भौंपू
पता नहीं ये सब
कहाँ भागे जा रहे हैं ?
हर कोई दूसरे को
पीछे छोड़
आगे बढ़ जाना चाहता है ।
सबको साथ लेकर चलना
कोई नहीं चाहता है ।
आगे बढ़ना है बस
किसी भी कीमत पर
किसी को रौंध कर
किसी को धकेल कर
किसी को पेल कर ।
हर कोई बस
आगे बढ़ जाता है ।
जीवन की डगर पर
भीड़ में खड़ी अचानक
अकेली हो जाती हूँ ।
कहीं कोई अपना
करीब नहीं पाती हूँ ।
हर रिश्ता इन वाहनों की तरह
दूर होने लगता है ।
मुझे पीछे धकेल कर
आगे निकल जाता है ।
और दिल में फिर से
एक अकेलापन
घिर आता है ।
जीवन की डगर पर अचानक
इतनी आवाज़ों के बीच
अपनी ही आवाज़
गुम हो जाती है ।
कानों में वाहनों के
चीखते-डराते हार्न
गूँजने लगते हैं
प्रेम की ममता की
आवाज़ें कहीं गुम
हो जाती हैं ।
मैं दौड़-दौड़ कर
हर एक को पुकारती हूँ
किन्तु मेरी आवाज़
कंठ तक ही रूक जाती है ।
लाख कोशिश के बाद भी
बाहर नहीं आती है ।
जीवन डगर पर-
अचानक कोई
बहुत तेज़ी से आता है
और मुझे कुचल कर
चला जाता है ।
मैं घायल खून से लथपथ
वहीं गिर जाती हूँ
किन्तु
ये बहता रक्त-
ये कुचली देह
किसी को दिखाई नही देती ।
जीवन की डगर में
मेरी आत्मा क्षत-विक्षत है
और मैं आज भी आशावान हूँ ।
मुझे लगता है
कोई अवश्य आयेगा
मेरे घावों को
सहलाने वाला
मुझे राह से
उठाने वाला ।
जीवन की डगर में
अतीत को दोहराती हूँ
खुद एक सड़क
बन जाती हूँ ।मुझे दिखने लगते हैं
आते जाते अनेक रिश्ते
जिन्होने पल दो पल के लिए
मुझे आबाद किया ।
आशा की किरणें बिखेरी
किन्तु बत्ती हरी होते ही
वे सब बिखर जाते हैं ।
कुछ पल बाद नए वाहन
इस सड़क पर आजाते हैं।
फिर से आँखों में
रौशनी कौधती हे ।
फिर से मैं बाँहें फैला कर
सबको गले लगाती हूँ ।
और---
अपनी इस दौलत पर
फूली नहीं समाती हूँ ।
किन्तु अचानक बत्ती
फिर हरी हो जाती है ।
जीवन की डगर
फर सूनी हो जाती है ।
ये सूनापन --
मुझे सालने लगता है ।
किन्तु तभी --
एक दृष्टि मिल जाती है ।
जीवन चलने का नाम है ।
रुकना या रोकना
जीवन का अपमान है ।
आगे और आगे
बढ़ते जाओ
कभी किसी पर
दोष मत लगाओ ।
क्योकि---
जीवन की डगर पर
लोग आते ही रहेंगें ।
नित नए रंगो से
जीवन सजाते ही रहेंगें ।
दिल में न कभी
रखना कशिश
आगे बढ़ने की
देना आशीष

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नारी तुम केवल सबला हो

>> Thursday, September 20, 2007


नारी तुम....
केवल सबला हो

निमर्म प्रकृति के फन्दों में
झूलती कोई अर्गला हो ।
नारी तुम...
केवल सबला हो ।

विष देकर अमृत बरसाती
हाँ ढ़ाँप रही कैसी थाती ।
विषदन्त पुरूष की निष्ठुरता
करूणा के टुकड़े कर जाती
विस्मृति में खो जाती ऐसे
जैसे भूला सा पगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो

कब किसने तुमको माना है
कब दर्द तुम्हारा जाना है
किसने तुमको सहलाया है
बस आँसू से बहलाया है
जिसका भी जब भी वार चला
वह टूट पड़ा ज्यों बगुला हो ।
नारी तुम--
केवल सबला हो

तुम दया ना पा ठुकराई गई
पर फिर भी ना गुमराह हुई
इस स्नेह रहित निष्ठुर जग में
कब तुमसी करूणा-धार बही ?
जिसने तुमको ठुकराया था
उसके जीवन की मंगला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो

कब तक यूँ ही जी पाओगी ?
आघातों को सह पाओगी ?
कब तक यूँ टूटी तारों से
जीवन की तार बजाओगी ?
कब तक सींचोगी बेलों को
उस पानी से जो गंदला हो ?
नारी तुम ---
केवल सबला हो

लो मेरे श्रद्धा सुमन तम्हीं
कुछ तो धीरज पा जाऊँ मैं
अपनी आँखों के आँसू को
इस मिस ही कहीं गिराऊँ मैं
तेरी इस कर्कष नियती पर
बरसूँ ऐसे ज्यों चपला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो

मेरी इच्छा वह दिन आए
जब तू जग में आदर पाए ।
दुनिया के क्रूर आघातों से
तू जरा ना घायल हो पाए
तेरी शक्ति को देखे जो
तो विश्व प्रकंपित हो जाए ।
यह थोथा बल रखने वाला
नर स्वयं शिथिल-मन हो जाए ।
गूँजे जग में गुंजार यही-
गाने वाला नर अगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो ।
नारी तुम केवल सबला हो ।

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प्यास

>> Friday, August 31, 2007


प्यास
भँवरे को कलियों के खिलने की प्यास
कलियों को सूरज की किरणों की प्यास
सूरज को चाहें चाँद की किरणें
चन्दाके आने की सन्ध्या को आस
सन्ध्या को माँगा है तपती जमीं ने
किसने बुझाई है किसकी ये आस ?
गीतों ने चाहा है खुशियों का राग
खुशियों को अपनो से मिलने की आस
अपने भी जाएँ जो आँखों से दूर
मिलने की रहती है बेबस सी आस
प्यासी ज़मीं और प्यासा गगन है
प्यासी नदी और प्यासी पवन है
नहीं कोई हो पाता जीवन में पूरा
तमन्नाएँ कर देती सबको अधूरा
अतृप्ति मिटाती है ओठों से हास
सभी हैं अधूरे सभी को है प्यास
मगर जिनको मिलता है तेरा सहारा
उसी को मिला है यहाँ पर किनारा
ये भोगों की दुनिया उसे ना रूलाती
जगी जिसकी आँखों में ईश्वर की प्यास
चलो आज करलो जहाँ से किनारा
लगा लो लगन और पा लो किनारा
वो सत्-चित् आनन्द सबका सहारा
वहीं जाओ फिर पाओगे तुम किनारा
अतृप्ति रहेगी ना भोगों की प्यास
मिटा देगा वो तेरी जन्मों की प्यास

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संवेदना

>> Thursday, August 30, 2007


स्वतंत्र भारत के नागरिकों
मेरी संवेदना तुम सबके प्रति है ।
क्योंकि ------
तुम केवल बाहर से स्वतंत्र हो
भीतर से तो आज भी
गुलामी के उसी बन्धन में
जी रहे हो --
सोचो तो -इतने उत्सव ,
इतने आयोजन -
क्यों कर रहे हो ?
गुलामी ही तुम्हारी नियती है ।
इसीलिए -
मेरी संवेदना तुम्हारे प्रति है ।
तुम गाँधी, सुभाष और
तिलक की बात करते हो ?
अपने अन्तर से पूछो
क्या उनका आचरण धरते हो
देश की खातिर क्या
कभी कुछ किया है ?
फिर इन बलिदानियों का
नाम क्यों लिया है ?
ये तो आडम्बर की
घोर परिणिति है ।
इसीलिए-
मेरी संवेदना तुम सब के प्रति है ।
आज़ादी के लिए ही
उन्होने जानें गँवाई
किन्तु तुमने आज़ादी
इतने सस्ते में लुटाई ?
स्वार्थ संकीर्णता में फँस कर
सारी ज़िन्दगी बिताई ?
कभी धन,कभी प्रतिष्ठा
कभी पद, कभी स्वार्थ
के गुलाम बने रहे ।
भोगों के पीछे भागने की तो
आज हो चुकी अति है ।
इसीलिए ---
मेरी संवेदना तुम सबके प्रति है ।
देश प्रेम और राष्ट्रीय आस्मिता की
कोरी बाते मत करो ।
ये सब अर्थ हीन हैं ।
यदि सत्य होती तो-
भगत- सिंह और सुभाष
देश छोड़ विदेश जाने का
ख्वाब क्यों सजाते ?
सुख-आराम की लालसा में
क्यों इतने तिलमिलाते ?
देश के कर्णाधार क्यों
देश को ही खा जाते ?
साम्प्रदायिकता का काला
ज़हर क्यों फैलाते ?
क्यों सबकी ऐसी मति है ?
इसीलिए--
मेरी संवेदना -
तुम सब के प्रति है ।
किसी दिन तुम सच में
आज़ाद हो जाओ ।
अपना देश,अपना घर
अपना आँगन सजाओ ।
भारत की सुन्दर छवि बनाओ
वन्दे मातरम् की सच्ची
भावना ले आओ ।
भारत से स्वार्थ को
दूर भगाओ ।
तन-मन और मन से
समर्पित हो जाओ ।
प्रेम की गंगा में
डुबकी लगाओ ।
रोती हुई आँखों को
हास दे जाओ ।
फिर ध्वज फहराने की
पूर्ण अनुमति है ।
वरना---
मेरी संवेदना
तुम सबके प्रति है ।
इन सब के प्रति है ।

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मेरी प्यारी हिन्दी

>> Thursday, August 9, 2007

मेरी प्यारी हिन्दी
मेरे हिन्द की भाषा
मेरे राष्ट्र का गौरव
सबका स्वाभिमान
इस देश की पूँजी
भावों का तुझमें विस्तार
दिल में बसा तेरे प्यार
नित्य नूतन शब्दों को
जन्म देने वाली
हमार भावों को
व्यक्त करने वाली
अनेक विदेशी शब्दों को
आँचल में बसाती ।
अपनी ममता तू
सब पर लुटाती
सरल-सरस शब्दों की
झंकार
तुझमें बसा है बस
प्यार ही प्यार

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बादल

>> Saturday, August 4, 2007


स्मृति पटल पर कुछ बादल घिर आए हैं ।
उमड़-घुमड़ कर मधुर शोर ये मचाए है।
चेतना की बिजली भी बार-बार चमकती है।
दिल के कोने में एक फाँस सी चुभ जाती है ।
आँखों में अश्रु-जल की तरल बूँदें तैर जाती हैं ।
ऐसे में तम्हारी प्रिय याद बहुत आती है ।

जैसे ही हवा मेरा द्वार खट्खटाती है
तुम्हारी उँगलियों की सर-सराहट हो जाती है।
घर के हर कोने से तब खुशबू तेरी आती है।
महकती हुई साँसों में तेज़ी सी आ जाती है ।
लगता है कोई छवि आस-पास ही मँडराती है ।
वाणी बार-बार प्रेम-भरा गीत गाती है ।
तेरी याद बहुत आती है---------------

जब भी कहीं बिछड़ा कोई दोस्त कोई मिल जाता है ।
आँगन में मेरे भी एक फूल सा खिल जाता है ।
आँखों में अचानक से कुछ स्वप्न से जग जाते हैं ।
कितने ही अरमान मेरे दिल में मचल जाते हैं ।
फिर से कोई पगली तमन्ना मचल जाती है ।
आँखों के झरोखों से तसवीर निकल आती है ।
तेरी याद बहुत आती है---------------

कैसी ये अनोखी सी इस दिल की कहानी है ।
वो भूल गया मुझको दिल ने नहीं मानी है ।
ये फिर से बुलाता है उस गुजरे हुए कल को
जो दूर है जा बैठा उस भूले से प्रीतम को
फ़िर नेह की बाती के उजले से सवेरे को
जिसके बिना जीवन में अँधियारी सी छाती है
एक प्यास जगाती है तेरी याद क्यों आती है

शोभा महेन्द्रू

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मेरे मन

>> Sunday, July 29, 2007


सावधान मन
सावधान मन
भावनाओं का वेग आ रहा है ।
इसकी लहरों में तीव्रता है ।
ये तुम्हें गंतव्य से दूर
ले जाकर पटक देंगीं ।
इसकी मधुर ध्वनि ,
सुकुमार छवि और
मनमोहक अदा न देख
ये तुझे सत्य से दूर
बहुत दूर ले जाएँगी ।
इस मदहोशी में
तू कब कहाँ
पहुँच जाएगा
कभी जान भी ना पाएगा ।
अगर कुछ देखना ही है
तो विनाश के दृश्य देख
जो इसके बाद आएँगे ।
जब तू आसक्ति के पाश में
कसमसाएगा ।
तेरी विवशता
कोई समझ भी
नहीं पाएगा ।
तू खुद ही
स्वयं को धिक्कारेगा ।
क्या उस दृश्य को
सहन कर पाएगा ?

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एक अहसास

>> Sunday, July 8, 2007


कितना सुखद अहसास है
कोई हर पल- हर घड़ी
मेरे साथ है ।
कभी हँसाता है,
कभी रूलाता है
और कभी ---
आनन्द के उस समुन्द्र में
धकेल देता है
जहाँ------
उअनुभूति की खुमारी है
बड़ी लाचारी है ।
मैं षोडषी बन
चहकने लगती हूँ ।
उसकी बातों में
बहकने लगती हूँ ।
अपनी इस दशा को
कब तक छिपाऊँ
और किसको अपना
हाल बताऊँ ?
अपनी उस अनुभूति के लिए
शब्द कहाँ से लाऊँ ?
किसी को क्या
और कैसे बताऊँ ?
ये तो अहसास है ।
जो कहा नहीं जा सकता
समझ सकते हो
तो समझ जाओ ।
नूर की इस बूँद को
मौन हो पी जाओ ।
मौन हो पी जाओ ।

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मेरी तलाश

>> Wednesday, June 27, 2007


बहुत सारे प्रश्न आज मुझे घेरे हैं ।
संदेह के बादल हर ओर मेरे हैं ।
आज मैं फिर उसी मोड़ पर आ गयी हूँ ।
जहाँ से हर रास्ता बन्द हो जाता है ।
सारे प्रयास ? इतने विवाद ?
पर निष्कर्ष वही ??????
ओह !
ये कैसा अन्धकार है ?
जो बार-बार घिर आता है ।
और हर बार मुझे निरूत्तर
कर देता है ?
मैं थक चुकी हूँ
इन प्रश्नों से ।
आखिर कोई हमेशा
दोस्त क्यों नहीं रह पाता ?
स्वार्थ, लालच में ही क्यों
उभरता है हर नाता ?
कुछ असमंजस,कुछ दुविधा,
किन्तु उत्तर केवल एक ।
मेरी तलाश क्या
कभी खत्म होगी ?

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मेरे मन

>> Sunday, June 24, 2007


ऒ मेरे मन
अब तू भटकना छोड़ ।
कितना भटकेगा ?
कब तक भटकेगा ?
जहाँ भी तू सुख की
तलाश में जाता है-
वे सब दुख के साधन हैं ।
उनसे सुख की अपेक्षा क्यों ?
यह भ्रम और ना पाल ।
वैसाखियों के सहारे
चलना छोड़ दे ।
आत्मबल का सम्बल ले ।
और आगे बढ़ जा ।
और अगर सहारा ही चाहिए-
तो उस अविनाशी ,
सदा आनन्द स्वरूप का ले ।
जो सदा-सर्वदा तेरे साथ है ।
जो कभी तुझसे अलग नहीं ।
जो हर क्षण तुझे सँभालता है ।
लौटकर भी तो वहीं आना है ।
फिर----------
ये भटकन क्यों ?
चल आगे बढ़ जा ।
ये तेरा गंतव्य नहीं ।
केवल मार्ग के मोहक
दृश्य हैं ।
जो तुझे बहका रहे हैं ।
तू इनमें ना भटक ।
बस आगे बढ़ जा ।
आगे और-आगे ।

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एक वृक्ष

>> Saturday, June 23, 2007


एक वृक्ष है मेरे आँगन में
घना, छायादार,
फल फूलों से लदा ।
झूमता-इतराता ।
सुख-सम्पन्नता बरसाता ।
हम सब पर प्यार लुटाता ।
जाड़ा-गर्मी -बरसात ,
सभी से हमें बचाता ।
और सदा मुस्कुराता ।
हर मुसीबत, हर तकलीफ को,
चुटकियों में उड़ाता ।
उसकी स्नेहिल छाया में-
सारा घर आश्रय पाता ।
दादा-दादी की गोद में
मैं फूला नहीं समाता ।
मेरे पूज्य, मेरे भय त्राता
दो आशीष रहूँ मुसकाता ।

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जीवन

>> Friday, June 22, 2007


जीवन
जीवन क्या है ?
आशाऒं- निराशाऒं का
क्रीड़ास्थल ।
एक आती है,
दूसरी जाती है ।
एक सपने जगाती है ।
कोमल भावनाऒं की
कलियाँ खिला जाती है ।
मन्द- मन्द बयार बन
उन्हें सहलाती है ।
मन मयूर खुशी से
नाचने लगता है ।
किन्तु तभी---
दूसरी लहर आती है ।
मौसम बदलता है ।
बयार की गति बढ़ जाती है ।
तूफान के झोंके आते हैं ।
हर कली को गिराते हैं ।
बहारों का मौसम
पतझड़ में बदल जाता है ।
सुख- दुःख का जीवन से
बस इतना ही नाता है ।

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ek vardaan

>> Thursday, June 21, 2007


मैने ज़िन्दगी से खुशी का
बस एक पल माँगा था ,
उसने उदार होकर
अपार भंडार दे दिया ।
प्रसन्नता की बस एक
लहर माँगी थी ,
उसने पूरा पारावार
दे दिया ।
तृप्ति का ,सुख का
बस एक कण माँगा था ,
उसने उल्लास का दरिया
ही बहा दिया ।
उसकी उदारता से
अभिभूत हो गयी हूँ ,
और कुछ भयभीत भी
हो गयी हूँ ।
क्या इतना सुख
सँभाल भी पाऊँगी ?
आनन्दातिरेक से
पागल तो नहीं
हो जाऊँगी ?

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जब भी मैं तुम्हें पा जाती हूँ
आनन्द के सागर में डूब जाती हूँ।
मन्द मन्द मुस्कुराती हूँ ।
और ठहाके भी लगाती हूँ ।
पर ,,,,,,,,,,
उस खुशी को आत्मसात
नहीं कर पाती हूँ ।
चेतना झटका देती है ।
और मुझसे पूछती है -
कहाँ और किस दिशा में
जा रही हूँ ?खुशी की ये कैसी तलब है ?
जिसका हर द्वार दुखों के
गलियारों से होकर
जाता है।
भटकता निराश मन
केवल क्षण भर को ही
चैन पाता है ।
और फिर ---
सवालों में घिर जाता है ।
फिर सवालों में घिर जाता है ।
तुम जिसे पाना चाहते हो ,
वह मेरा लक्ष नहीं है ।
पता नहीं ये भटकन ,
कब तक चलेगी ?
सुक की मृग तृष्णा
कब तक छलेगी ?




सुकुन की तलाश में
बेचैनी क्यों पा रही हूँ ?

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