मेरे अनुभव को अपनी प्रतिक्रिया से सजाएँ

कलम के सिपाही! तुम्हें नमन.......

>> Thursday, July 31, 2008


प्रिय पाठकों,
आज महान कहानी कार मुंशी प्रेमचन्द की जन्म तिथि है। एक महान कहानीकार को नमन करते हुए प्रस्तुत कर रही हूँ उनका संक्षिप्त परिचय।
कलम के सिपाही प्रेमचन्द जी नाम लेते ही आँखों के समक्ष एक चित्र उभरता है- गोरी सूरत, घनी काली भौंहें, छोटी-छोटी आँखें, नुकीली नाक और बड़ी- बड़ी मूँछें और मुस्कुराता हुआ चेहरा। टोपी,कुर्ता और धोती पहने एक सरल मुख-मुद्रा में छिपा एक सच्चा भारतीय। एक महान कथाकार- जिसकी तीक्ष्ण दृष्टि समाज और उसकी बुराइयों पर केन्द्रित थी। एक समग्र लेखक के रूप में उन्होने मध्यवर्गीय समाज को अपने साहित्य में जीवित किया।
सीधा- सरल जीवन जीने वाले प्रेमचन्द जी का जन्म ३१ जुलाई १८८० को लमही ग्राम में हुआ था। माता-पिता ने नाम रखा धनपत और प्यार करने वालों ने नाम दिया नवाब। पारिवारिक जीवन संघर्षों से परिपूर्ण था। बचपन में ही माँ चल बसी और नन्हें बालक को सौतेली माँ की ज्यादतियों का शिकार होना पड़ा।
घर पर प्यार के अभाव में बालक घर का आँगन छोड़ प्रकृति की गोद में जा बैठा। प्रकृति ने बाँहें फैला कर बालक को अपना संरक्षण दिया। गरीबी, घुटन, रूखेपन को धनपद ने कहकहों में उड़ा दिया और अपनी पीड़ा को लेखनी में उतारना शुरू किया। रात के अँधेरे में डिबरी लेकर बैठते और पढ़ाई के साथ-साथ साहित्य रचना करते।
जीवन का अधिकतर ग्यान जीवन की पाठशाला में सीखा।
अनेक पत्र- पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए ख्याति प्राप्त की। १९०१से इनकी लेखनी चलनी प्रारम्भ हुई तो चलती ही रही। इन्होने कथा जगत को तिलिस्म , ऐयारी और कल्पना से निकाल कर राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी भावनाओं की दुनिया में प्रवेश कराया। १९३० में 'हँस' निकाला और १९३२ में 'जागरण'।
सरकारी नौकरी में स्वाभिमान आड़े आया और त्यागपत्र देकर गाँव लौट आए। कलम चलाकर ४०-५० रपए में घर चलाने लगे। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा खी। कभी जेल नहीं गए, किन्तु सैनिकों की वाणी में जोश भरा। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से अपने विचार जन-जन में पहुँचाए।
उन्होने पहली बार कथा साहित्य को जीवन से जोड़ा और सामाजिक सत्यों को उजागर कर अपने दायित्व का निर्वाह किया। उनमें पर्याप्त जागरूकता और सूक्ष्म दृष्टि थी। उन्होने अपने युग को पहचाना । जीवन की पाठशाला में जो भी सीखा उसी को साहित्य का आधार बनाया। समाज, जीवन और भावबोध प्रेमचन्द के लिए महत्वपूर्ण बातें थीं। वे ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे जिसमें किसी का भी शोषण ना हो ।प्रेमचन्द प्रगतिशील साहित्यकार थे किन्तु उनकी प्रगतिशीलता आरोपित नहीं थी। प्रियता पर करारी चोट की, उनका विविध चित्रण किया। निर्मला उपन्यास मध्यवर्ग और उसकी कमजोरियों का कच्चा चिट्ठा है। गोदान में ग्रामीण जीवन को जीवित किया है।
उनका साहित्य एक ओर भारत की अधोगति, और दूसरी ओर भारत की भावी उन्नति के पथ पर चला है। उन्होने जिस विचारधारा का सूत्रपात किया वह थी पापाचार का निराकरण। उन्होने अपने उपन्यासों में धर्म की पोल खोली है। हिन्दू धर्म की की जीर्णशीर्णता का सुन्दर चित्रण किया व धर्म को मानवता वादी आधार प्रदान किया। उन्होने मनुष्य सेवा को ही ईश सेवा माना।
प्रेमचन्द जी ने अपने समाज की रूढ़ियों पर खुलकर प्रहार किया। उन्होने अपने उपन्यासों के द्वारा पाठकों तक ऐसी भावनाओं का सम्प्रेषण किया जिसमें जीवन के प्रति गरिमा हो। उन्होने समाज को दिशा प्रदान की। प्रेमचन्द जी ने पूँजीवाद का तीव्र विरोध किया।
नारी को प्रगतिशील बनाया तथा बाल-विवाह और अनमेल विवाह के दुष्परिणामों से समाज को परिचित कराया। निर्मला का करूण अन्त चीख-चीख कर यही कहता है। दहेज प्रथा से उन्हे चिढ़ थी। दहेज का दुष्परिणाम भी इनके उपन्यासों में मिलता है।
उन्होने किसानों की समस्याओ और उनकी कमियों को लेखनी में उतारा। मज़दूरों, युवकों, विद्यार्थियों और अछूतों को साहित्य का विषय बनाया और उनके कष्टों को वाणी दी।
शोषण,गुलामी,ढ़ोंग, दंभ,स्वार्थ रूढ़ि, अन्याय,,अत्याचार सबकी जड़ें खोदीं और मानवता की स्थापना की।
गोदान, मंगलसूत्र निर्मला सेवासदन इनकी अमर कृतियाँ हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानियाँ हिन्दी साहित्य का श्रृंगार हैं। बड़े भाई साहब, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, कफ़न,आज भी प्रासंगिक हैं। समाज का हर वर्ग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ उनमें जीवित है।
आर्थिक समस्याएँ उन्हें फिल्म जगत में ले गईं किन्तु समझौता करना उनका स्वभाव नहीं था। वापिस आ गए और संघर्षों से भरा जीवन जीते रहे । ८ अक्टूबर १९३६ को मात्र ५६ वर्ष की अवस्था में पंचभौतिक शरीर को त्याग परम तत्व में विलीन हो गए।
प्रेमचन्द की कथाएँ और उनके उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। जब-जब उन्हे पढ़ा जाएगा, जन मानस उन्हे अपने बहुत करीब ही पाएगा। उस पवित्र आत्मा को मेरा शत-शत नमन।

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परिवर्तन

>> Monday, July 28, 2008


परिवर्तन सृष्टि का नियम है

परिवर्तन जीवन का क्रम है

परिवर्तन एक अकाट्य सत्य है

फिर भी ----

हम परिवर्तन को स्वीकार

क्यों नहीं कर पाते हैं ?

जरा-जरा सी बात पर

क्यों इतना घबराते हैं ?


बचपन में अबोध बच्चा

जब माता की छाती से चिपक

तोतली जुबान में प्यार जताता है

माँ-बाप की आँखों में तब

तृप्ति एवँ सन्तोष का

भाव उभर आता है

और जब वह बड़ा होकर

पत्नी के परिरम्भण में

असीम सुख पाता है

उसी की हाँ में हाँ मिलाता है

तब माँ-बाप को ये

समझ क्यों नहीं आता है

कि-- परिवर्तन सृष्ट का नियम है


जीवन का बस एक क्रम है

बाप के बीमार होने पर

बहू का बड़बड़ाना

बेटे का दवा लाने में

बहाने बनाना सुनकर

क्यों अतीत में लौट आते हैं

परिवर्तन को सहज़

स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?

इतना शोर क्यों मचाते हैं?


बस मान लो यह कि

यह एक अकाट्य सत्य है

इसको स्व की सीमाओं में

कैद ना करना बेकार है

यह ईश की अनोखी देन

और उसका अनुपम

उपहार है ।

सृष्टि का श्रृंगार है ।

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मन के पंख नहीं होते पर

>> Friday, July 25, 2008


मन के पंख नहीं होते पर
फिर भी मन उड़ जाता है
व्याकुल पंखों को फैलाकर
नील गगन में जाता है
कभी दिखाता सुन्दर सपने
उर उम्मीद जगाता है
घोर निशा के तिमिरांचल में
सूर्य किरण बिखराता है ।

असफ़लता की घोर निराशा
जीवन में जब आती है
विगत सुःखों की झिलमिल झाँकी
आँखों में तिर जाती है
देखे थे जो सुन्दर सपने
उनकी याद सताती है।
चिर वियोग की तीव्र वेदना
आँखों में तिर जाती है

यह पागल सा हो मतवाला
तृष्णा- जाल बिछाता है
अपने पंखों संग बाँधकर
दूर बहुत ले जाता है
देख नयन का सुन्दर उत्सव
हृदय- हर्षित हो जाता है
तभी अचानक क्रूर सत्य भी
हँसी छीन ले जाता है

कभी सोचती त्वरित गति से
पिंजर एक बनाउँ मैं
चंचल गति को इसकी रोकूँ
अपना दास बनाऊँ मैं
किन्तु हृदय से ध्वनि ये आती
मन को लाड़- लड़ाऊँ मैं
भूल सत्य को इसके संग ही
उन्मत्त दौड़ लगाऊँ मैं

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घिन आने लगी है 'घोड़ामण्डी' से

>> Wednesday, July 23, 2008


लगते थे ...
.बहुत अच्छे तुम
बातें तुम्हारी .....
सीधे दिल के अंदर
नसों में खून ...
..उबलने लगता था
कुछ भी करने को आतुर
चिलचिलाती धूप में
पसीने से लथपथ ..
आते थे जब भी ..
भटकते हुए मांग कर
किसी से 'लिफ्ट'
अथवा पैदल ...

तुम्हारा भूखा प्यासा
पदयात्रा से थका चेहरा
कर देता था व्याकुल
हर गावं में मां को ..
दौड़ पड़ती थी बहना
ले पानी का गिलास
भाभी टांक देती थी बहुधा
तुम्हारे ‘फटे हुए कुरते’ के बटन
बाबा सोचते थे हरबार
देने को एक नया कुरता
मुझसे पहले ….. तुम्हें
सीखा मैंने जिज्ञासु
तुम्हारे थैले में भरी किताबों से
नैतिकता, राष्ट्रप्रेम, त्याग, समाजसेवा
इतिहास और आदर्श का हर पाठ
उत्प्रेरित हो तुमसे ही ....……………..
........................
किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें…
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....

धूलधूसरित मां .....
घंटों देखती रहती है
नीले, पीले, लाल, हरे,
केसरिया झण्डों को..
विस्फारित नेत्रों से ....
आज सुनती है जब
'घोड़ामण्डी' के भाव
थूक देती है पिच्च से .
.और उसके चेहरे पर
पढ़ते हुए भाव …..
मुझे घिन आने लगी है
तुम्हारी नौटंकी से…
तुम्हारे चेहरे से ....तुमसे
....

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टीस सी जग जाती है

>> Monday, July 21, 2008


मन का तहखाना

कैद है जिसमें

असंख्य रिश्ते--

जिनको आज तक

नाम नहीं दे पाई

किन्तु---आज भी-

-हर रिश्ते से बढ़कर

हर कदम पर

हर पल

बहुत करीब रहते हैं

अकेलेपन में

उनकी परछाई

सदा आस -पास

मँडराती रहती है

अदृश्य बाँहें-

सदा संरक्षण देती

तथा प्यार से

थपथपाती हैं

कभी-कभी अचानक

अतीत प्रत्यक्ष होकर

आसक्ति जगाता है

बीते दिनों को

फ़िर से बुलाता है

प्रेमांगन में-

भीनी सी खुशबू

तीव्रता से आती है

और दूर ले जाती है

अलभ्य को ---

पाने की कामना

बलवती हो जाती है

और --दिल के किसी कोने में

एक टीस सी जग जाती है ।

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विभिन्नता में एकता

>> Thursday, July 17, 2008



मेरे देश की विशेषता

हमेशा यही पाठ पढ़ा-

और यही पढ़ाया

किन्तु प्रत्यक्ष में

एकता का कहीं

दर्शन ना पाया


कभी धर्म के नाम पर

खुले आम घर जले


फिर भी हमने……

.धर्म निरपेक्षिता की

डींगे हाँकी….


जाति के आधार पर आरक्षण

युवा शक्ति का विद्रोह

हड़तालें,तोड़-फोड़

आत्मदाह की घटनाएँ

हमारा कलेजा चीर गई

फिर भी हमने

समानता की दुहाई दी


प्रान्तीयता के आधार पर


राष्ट्रीयता के हृदय पर

एक बड़ा आघात

और सारा देश चुप….

.पद का सही उम्मीदवार

अपमान सह गया

और राष्ट्र मूक रह गया


और आज……

प्रान्तीयता का राक्षस

आतंक मचा रहा है

चीखों और पुकारों से

दिल घबरा रहा है

नफरत की आँधी

सब कुछ उड़ा रही है


अपनी सन्तान के

कुकृत्यों पर

उसका अंग-अंग

पीड़ा से कराह रहा है

ना जाने कौन

ये जहर फैला रहा है

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मैं और मेरी परछाई

>> Tuesday, July 15, 2008


हम दो हैं-
मैं और मेरी परछाई ।
जब भी मैं –
परिस्थितियों में
सहज होना चाहती हूँ -
मेरी परछाई
बहुत दूर भाग जाती है ।
ना जाने उसे कब और कैसे
अवसर मिल जाता है और
वह तुमसे मिल आती है ।

जब भी मैं काम में
मन लगाती हूँ -
वो कल्पना की
रंगीन चादर बिछाती है ।
तितली की तरह इधर-उधर
मँडराती है ।

जब मैं किसी मीटिंग में बैठ
गम्भीरता से सिर हिलाती हूँ-
वह शरारत से गुदगुदाती है ।
हाथ पकड़ कर बाहर ले आती है ।
जाने कैसे-कैसे बहाने बनाकर
अपनी बातों को सही ठहराती है ।

जब भी मैं जीवन को
सहज अपनाती हूँ --
वह विरोध कर देती है ।

मैं इसे कैसे समझाऊँ ?
जान नहीं पाती हूँ ।
घूर कर , डाँट कर
झीक कर रह जाती हूँ ।
तुम इस परछाई को
सच ना समझना ।
इसके साथ कोई ख्वाब
ना बुन ना ।
क्योकि ये केवल परछाई है
सच नहीं ।
कभी भी धोखा दे जायेगी
जब मेरी ही ना हुई तो
तुम्हारी क्या खा़क हो पाएगी ?

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कुछ प्रश्न

>> Sunday, July 13, 2008




कुछ प्रश्न उठ रहे हैं
मेरे ज़हन में--
उत्तर दोगे?
सच-सच
तुम्हारी दृष्टि में
प्रेम क्या है
किसी से जुड़ जाना
या उसे पा लेना
वैसे पाना भी एक प्रश्न है
उसके भी कई अर्थ हैं
कैसे पाना--
शरीर से- या मन से
यदि शरीर से--
तो एक दूसरे को पाकर भी
परिवार पूर्ण क्यों नहीं हो पाते-
यदि मन से--
तो सारा आडम्बर क्यों -
इन चिरमिराते साधनों से
तुम किसे जीतना चाहते हो-
उस मन को-
जो स्वछन्दता भोगी है
या उस तन को
जो भुक्तभोगी है ?
सोचो तुम्हारा
गंतव्य क्या है ?
ये व्याकुलता
ये तड़प -
किसके लिए है ?
यदि कुछ पाना ही नहीं
तो मिलें क्यों ?
सब कुछ तो मिल रहा है
सामीप्य,संवेदना

साहचर्य और प्रेम भी
फिर क्या अप्राप्य है?
क्यों बेचैन हो?


मैं तो सन्तुष्ट हूँ
जो मिल रहा है
उससे पूर्ण सन्तुष्ट
हाँ कुछ इच्छाएँ जगती हैं
किन्तु मैं इन्हें
महत्व नहीं देती
मेरी दृष्टि में
ये मूल्यहीन हैं
मेरा प्राप्य
आत्मिक सुख है
मैं उस सीमा पर
पहुँचना चाहती हूँ
जिसके आगे मार्ग
समाप्त हो जाता है
मेरी आक्षाएँ असीम हैं
बोलो चलोगे ?
दोगे मेरा साथ ?

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कवि तुम पागल हो--?

>> Wednesday, July 9, 2008

कवि तुम पागल हो--?

सड़क पर जाते हुए जब
भूखा नंगा दिख जाता है
हर समझदार आदमी
बचकर निकल जाता है
किसी के चेहरे पर भी
कोई भाव नहीं आता है
और तुम---?
आँखों में आँसू ले आते हो
जैसे पाप धोने को
आया गंगाजल हो--
कवि तुम पागल हो ---?

जीवन की दौड़ में
दौड़ते-भागते लोगों में
जब कोई गिर जाता है
उसे कोई नहीं उठाता है
जीतने वाले के गले में
विजय हार पड़ जाता है
हर देखने वाला
तालियाँ बजाता है
पर-- तुम्हारी आँखों में
गिरा हुआ ही ठहर जाता है --
जैसे कोई बादल हो--
कवि-- तुम पागल हो--?

मेहनत करने वाला
जी-जान लगाता है
किन्तु बेईमान और चोर
आगे निकल जाता है
और बुद्धिजीवी वर्ग
पूरा सम्मान जताता है।
अपने-अपने सम्बन्ध बनाता है
पर तुम्हारी आँखों में
तिरस्कार उतर आता है
जैसे- वो कोई कातिल हो
कवि? तुम पागल हो --

सीधा-सच्चा प्रेमी
प्यार में मिट जाता है
झूठे वादे करने वाला
बाजी ले जाता है
सच्चा प्रेमी आँसू बहाता है
तब किसी को भी कुछ
ग़लत नज़र नहीं आता है
पर--तुम्हारी आँखों में
खून उतर आता है
उनका क्या कर लोगे
जिनका दिल दल-दल हो
कवि तुम पागल हो

धर्म और नैतिकता की
बड़ी-बड़ी बातें करने वाला
धर्म को धोखे की दुकान बनाता है
तब चिन्तन शील समाज
सादर शीष नवाता है
सहज़ में ही--
सब कुछ पचा जाता है
और तुम्हारे भीतर
एक उबाल सा आजाता है
लगता है तुमको क्यों
चर्चा ये हर पल हो ?
कवि तुम पागल हो --?

ये दुनिया तो ऐसी है
ऐसी रहेगी
तुम्हारी ये आँखें यूँ
कब तक बहेंगी?
पोछों अब इनको
अगन को जगा दो
सृष्टा बने हो तो
अमृत बहा दो
उठाओ कलम और
शक्ति बहा दो

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अमर प्रेम……

>> Sunday, July 6, 2008


असंख्य लहरों से तरंगित
जीवन उदधि
अब अचानक शान्त है
एकदम शान्त

घटनाओं के घात-प्रतिघात
अब आन्दोलित नहीं करते
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है

कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं

बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये त मेरा प्राप्य नहीं था

मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी
पता नहीं क्यों तुम
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही वस्तु पर
अधिकार की ये कैसी कामना है

जो तुम्हे अशान्त किए है
भूल कर सब कुछ
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो
और सदा के लिए
समर्पित हो जाओ
संशयों से मुक्ति पाजाओ।

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