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प्रेम उत्सव

>> Wednesday, February 13, 2008









प्रेम की ऋतु फिर से आई
फिर नयन उन्माद छाया
फिर जगी है प्यास कोई
फिर से कोई याद आया

फिर खिलीं कलियाँ चमन में
रूप रस मदमा रहीं----
प्रेम की मदिरा की गागर
विश्व में ढलका रही
फिर पवन का दूत लेकर
प्रेम का पैगाम आया-----




टूटी है फिर से समाधि
आज इक महादेव की
काम के तीरों से छलनी
है कोई योगी-यति
धीर और गम्भीर ने भी
रसिक का बाना बनाया—



करते हैं नर्तन खुशी से
देव मानव सुर- असुर
‘प्रेम के उत्सव’ में डूबे
प्रेम रस में सब हैं चूर
प्रेम की वर्षा में देखो
सृष्टि का कण-कण नहाया

प्रेम रस की इस नदी में
आओ नफ़रत को डुबा दें
एकता का भाव समझें
भिन्नता दिल से मिटा दें
प्रान्तीयता का भाव देखो
राष्ट्रीयता में है समाया--

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माँ सरस्वती

>> Sunday, February 10, 2008


माँ!
तुम कब तक यूँ ही
कमलासना बनी
वीणा- वादन करती रहोगी?
कभी-कभी अपने
भक्तों की ओर
भी तो निहारो
देखो--
आज तुम्हारे भक्त
सर्वाधिक उपेक्षित
दीन-हीन जी रहे हैं
भोगों के पुजारी
महिमा-मंडित हैं
साहित्य संगीत
कला के पुजारी
रोटी-रोज़ी को
भटक रहे हैं
क्या अपराध है इनका-?
बस इतना ही- -
कि इन्होने
कला को पूजा है?
ऐश्वर्य को
ठोकर मार कर
कला की साधना
कर रहे हैं ?
कला के अभ्यास में
इन्होने
जीवन दे दिया
किन्तु लोगों का मात्र
मनोरंजन ही किया ?
माँ!
आज वाणी के पुजारी
मूक हो चुके हैं
और वाणी के जादूगर
वाचाल नज़र आते हैं
आज कला का पुजारी
किंकर्तव्य-मूढ़ है
कृपा करो माँ--
राह दिखाओ
अथवा ----
हमारी वाणी में ही
ओज भर जाओ
इस विश्व को हम
दिशा-ग्यान कराएँ
भूले हुओं को
राह दिखाएँ

धर्म,जाति और
प्रान्त के नाम पर
लड़ने वालों को
सही राह दिखाएँ
तुमसे बस आज
यही वरदान पाएँ


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मेरी आत्मजा

>> Wednesday, February 6, 2008


मेरी आत्मजा
मेरा प्रिय अंग
आज देती हूँ तुम्हें
सीखें चन्द

नारी समाज की रीढ़
सृष्टि का श्रृंगार है
उसकी कमजोरी
सृष्टा की हार है

अन्याय को सहना
स्वयं अन्याय है
किन्तु परिवार में
त्याग अपरिहार्य है

तू धीर-गम्भीर और
कल्याणी बनना
किसी को दुःख दे
ऐसे सपने मत बुनना

वासना की दृष्टि को
शोलों से जलाना
कभी निर्बलता से
नीर ना बहाना

हृदय से कोमल
सबका दुःख हरना
अन्यायी आ जाए तो
शक्ति रूप धरना
लड़की हो इसलिए
सदा सुख बरसाना
किन्तु बिटिया--
- बस लड़की ही
मत रह जाना-

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