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जीवन डगर

>> Saturday, September 29, 2007


जीवन डगर के बीचो-बीच
भीड़ में खड़ी देख रही हूँ --
आते-जाते लोग-
दौड़ते वाहन
कानों को फोड़ते भौंपू
पता नहीं ये सब
कहाँ भागे जा रहे हैं ?
हर कोई दूसरे को
पीछे छोड़
आगे बढ़ जाना चाहता है ।
सबको साथ लेकर चलना
कोई नहीं चाहता है ।
आगे बढ़ना है बस
किसी भी कीमत पर
किसी को रौंध कर
किसी को धकेल कर
किसी को पेल कर ।
हर कोई बस
आगे बढ़ जाता है ।
जीवन की डगर पर
भीड़ में खड़ी अचानक
अकेली हो जाती हूँ ।
कहीं कोई अपना
करीब नहीं पाती हूँ ।
हर रिश्ता इन वाहनों की तरह
दूर होने लगता है ।
मुझे पीछे धकेल कर
आगे निकल जाता है ।
और दिल में फिर से
एक अकेलापन
घिर आता है ।
जीवन की डगर पर अचानक
इतनी आवाज़ों के बीच
अपनी ही आवाज़
गुम हो जाती है ।
कानों में वाहनों के
चीखते-डराते हार्न
गूँजने लगते हैं
प्रेम की ममता की
आवाज़ें कहीं गुम
हो जाती हैं ।
मैं दौड़-दौड़ कर
हर एक को पुकारती हूँ
किन्तु मेरी आवाज़
कंठ तक ही रूक जाती है ।
लाख कोशिश के बाद भी
बाहर नहीं आती है ।
जीवन डगर पर-
अचानक कोई
बहुत तेज़ी से आता है
और मुझे कुचल कर
चला जाता है ।
मैं घायल खून से लथपथ
वहीं गिर जाती हूँ
किन्तु
ये बहता रक्त-
ये कुचली देह
किसी को दिखाई नही देती ।
जीवन की डगर में
मेरी आत्मा क्षत-विक्षत है
और मैं आज भी आशावान हूँ ।
मुझे लगता है
कोई अवश्य आयेगा
मेरे घावों को
सहलाने वाला
मुझे राह से
उठाने वाला ।
जीवन की डगर में
अतीत को दोहराती हूँ
खुद एक सड़क
बन जाती हूँ ।मुझे दिखने लगते हैं
आते जाते अनेक रिश्ते
जिन्होने पल दो पल के लिए
मुझे आबाद किया ।
आशा की किरणें बिखेरी
किन्तु बत्ती हरी होते ही
वे सब बिखर जाते हैं ।
कुछ पल बाद नए वाहन
इस सड़क पर आजाते हैं।
फिर से आँखों में
रौशनी कौधती हे ।
फिर से मैं बाँहें फैला कर
सबको गले लगाती हूँ ।
और---
अपनी इस दौलत पर
फूली नहीं समाती हूँ ।
किन्तु अचानक बत्ती
फिर हरी हो जाती है ।
जीवन की डगर
फर सूनी हो जाती है ।
ये सूनापन --
मुझे सालने लगता है ।
किन्तु तभी --
एक दृष्टि मिल जाती है ।
जीवन चलने का नाम है ।
रुकना या रोकना
जीवन का अपमान है ।
आगे और आगे
बढ़ते जाओ
कभी किसी पर
दोष मत लगाओ ।
क्योकि---
जीवन की डगर पर
लोग आते ही रहेंगें ।
नित नए रंगो से
जीवन सजाते ही रहेंगें ।
दिल में न कभी
रखना कशिश
आगे बढ़ने की
देना आशीष

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नारी तुम केवल सबला हो

>> Thursday, September 20, 2007


नारी तुम....
केवल सबला हो

निमर्म प्रकृति के फन्दों में
झूलती कोई अर्गला हो ।
नारी तुम...
केवल सबला हो ।

विष देकर अमृत बरसाती
हाँ ढ़ाँप रही कैसी थाती ।
विषदन्त पुरूष की निष्ठुरता
करूणा के टुकड़े कर जाती
विस्मृति में खो जाती ऐसे
जैसे भूला सा पगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो

कब किसने तुमको माना है
कब दर्द तुम्हारा जाना है
किसने तुमको सहलाया है
बस आँसू से बहलाया है
जिसका भी जब भी वार चला
वह टूट पड़ा ज्यों बगुला हो ।
नारी तुम--
केवल सबला हो

तुम दया ना पा ठुकराई गई
पर फिर भी ना गुमराह हुई
इस स्नेह रहित निष्ठुर जग में
कब तुमसी करूणा-धार बही ?
जिसने तुमको ठुकराया था
उसके जीवन की मंगला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो

कब तक यूँ ही जी पाओगी ?
आघातों को सह पाओगी ?
कब तक यूँ टूटी तारों से
जीवन की तार बजाओगी ?
कब तक सींचोगी बेलों को
उस पानी से जो गंदला हो ?
नारी तुम ---
केवल सबला हो

लो मेरे श्रद्धा सुमन तम्हीं
कुछ तो धीरज पा जाऊँ मैं
अपनी आँखों के आँसू को
इस मिस ही कहीं गिराऊँ मैं
तेरी इस कर्कष नियती पर
बरसूँ ऐसे ज्यों चपला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो

मेरी इच्छा वह दिन आए
जब तू जग में आदर पाए ।
दुनिया के क्रूर आघातों से
तू जरा ना घायल हो पाए
तेरी शक्ति को देखे जो
तो विश्व प्रकंपित हो जाए ।
यह थोथा बल रखने वाला
नर स्वयं शिथिल-मन हो जाए ।
गूँजे जग में गुंजार यही-
गाने वाला नर अगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो ।
नारी तुम केवल सबला हो ।

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