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घिन आने लगी है 'घोड़ामण्डी' से

>> Wednesday, July 23, 2008


लगते थे ...
.बहुत अच्छे तुम
बातें तुम्हारी .....
सीधे दिल के अंदर
नसों में खून ...
..उबलने लगता था
कुछ भी करने को आतुर
चिलचिलाती धूप में
पसीने से लथपथ ..
आते थे जब भी ..
भटकते हुए मांग कर
किसी से 'लिफ्ट'
अथवा पैदल ...

तुम्हारा भूखा प्यासा
पदयात्रा से थका चेहरा
कर देता था व्याकुल
हर गावं में मां को ..
दौड़ पड़ती थी बहना
ले पानी का गिलास
भाभी टांक देती थी बहुधा
तुम्हारे ‘फटे हुए कुरते’ के बटन
बाबा सोचते थे हरबार
देने को एक नया कुरता
मुझसे पहले ….. तुम्हें
सीखा मैंने जिज्ञासु
तुम्हारे थैले में भरी किताबों से
नैतिकता, राष्ट्रप्रेम, त्याग, समाजसेवा
इतिहास और आदर्श का हर पाठ
उत्प्रेरित हो तुमसे ही ....……………..
........................
किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें…
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....

धूलधूसरित मां .....
घंटों देखती रहती है
नीले, पीले, लाल, हरे,
केसरिया झण्डों को..
विस्फारित नेत्रों से ....
आज सुनती है जब
'घोड़ामण्डी' के भाव
थूक देती है पिच्च से .
.और उसके चेहरे पर
पढ़ते हुए भाव …..
मुझे घिन आने लगी है
तुम्हारी नौटंकी से…
तुम्हारे चेहरे से ....तुमसे
....

12 comments:

Anonymous July 23, 2008 at 6:02 PM  

bhut sundar rachana badhai ho.

Anwar Qureshi July 23, 2008 at 6:08 PM  

mat kaho ghoda mandi ghodo ko bura lag jayega...

रंजू भाटिया July 23, 2008 at 6:13 PM  

shrikant ji is vishay par bahut accha aur sahi likte hain rajniti ki baate mujhe raajniti si hi samjh nahi aati par aj ke halat ko byaan karti hai yah rachana

कुश July 23, 2008 at 6:29 PM  

बहुत ही सशक्त रचना.. इतने उम्दा लेखन के लिए आप बधाई की पात्र है

Akhil July 23, 2008 at 7:20 PM  

अभी अचानक से चिट्ठाजगत देखा और जैसे ही कुछ पंकितियाँ पढ़ी, पूरी कविता पढ़े बिना नही रह पाया। बहुत अच्छी और सामयिक रचना है। शशक्त अभिव्यक्ति...

डॉ .अनुराग July 23, 2008 at 8:40 PM  

jaanti hai aapki behtareen rachnayo me se ek hai ye.......

राज भाटिय़ा July 23, 2008 at 8:58 PM  

बहुत ही सुन्दर रचना, एक सच जो आप ने कलम से यहा उतार दिया हे,धन्यवाद

शोभा July 23, 2008 at 9:09 PM  

मैं सभी पाठकों को बता दूँ कि यह मेरी नहीं श्रीकान्त जी की रचना है जो मुझे बहुत ही सामयिक लगी इसलिए परोस दी। श्रीकान्त जी इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई के पात्र हैं।

Udan Tashtari July 23, 2008 at 11:07 PM  

सशक्त रचना..

दिनेशराय द्विवेदी July 24, 2008 at 8:09 AM  

आप इसे अब भी घोड़ामंडी कहती हैं अब तो यह खच्चरमंडी हो चुकी है।

Rajesh July 24, 2008 at 2:33 PM  

Chahe yah rachna Shrikant ji ki ho ya phir Shobhaji ne ise yahan utaar diya ho, per aaj ke samay ki tadrashya rachna hai yah jis mein hamare politics ka sachitra varnan kar diya hai. Anwar Qureshi ji ke saath ekdam sahmat hoon - inhe ghoda mat kahiye, ghodon se bhi badtar hai ye log, inhe to gadhe bhi nahi kah sakte verna gadhe bhi laat maarne ko daudenge..... Bahot bahot badhaaiiiiiii.

Dr. Chandra Kumar Jain July 24, 2008 at 6:46 PM  

नैसर्गिक जीवन
और कृत्रिम आदर्श के
द्वंद्व से उपजी विरक्ति की
मूल्यवान अभिव्यक्ति है यह.
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बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन

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