परिवर्तन
>> Monday, July 28, 2008
हम परिवर्तन को स्वीकार
बचपन में अबोध बच्चा
पत्नी के परिरम्भण में
उसी की हाँ में हाँ मिलाता है
जीवन का बस एक क्रम है
बाप के बीमार होने पर
बस मान लो यह कि
यह ईश की अनोखी देन
बहुत भाव भीनी रचना है।अच्छी लगी।धन्यवाद।
February 18, 2009 12:09 PM
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना .अच्छी लगी.बधाई.
February 18, 2009 12:48 PM
सच में आ गया फागुन आपकी लिखी कविता पढ़ कर यही लगा सुंदर लिखा आपने
February 18, 2009 12:52 PM
सुन्दर रचना... होली की आमद का खाका खींच दिया आपने.
February 18, 2009 2:57 PM
सुन्दर रचना, मानो फागुन का साक्षात्कार हो गया आपकी कविता में!
February 18, 2009 6:03 PM
अरे वाह आप की कवित मै तो सच मुच फ़ागुन का मजा आ गया, बहुत सुंदर धन्यवाद
February 18, 2009 11:10 PM
अरे फागुन आ गया??
फागुन के आते ही पिया का इंतज़ार करती यह कविता सुंदर लगी.
February 19, 2009 1:33 AM
fagun par rangon ki bauchaare karne ko taiyaar hai ham bhi
sambhalanaa jaraa pakke rangon se
bagai paani shabdon ki holi blog par hi kheli jaayegi
February 19, 2009 10:57 AM
बहुत सुन्दर कविता बड़े दिनो बाद आया और पहली ही कविता अच्छी लगी।
February 22, 2009 1:39 AM
श्रृंगारपूर्ण ....आशावादी !
February 22, 2009 9:01 AM
रूमानी जज्बातों से परिपूर्ण एक सुन्दर रचना है जिसके लिए आपको निश्चित रूप से बधाई दी जानी चाहिए।
February 25, 2009 3:21 PM
posted by शोभा at 11:55 PM on Dec 28, 2008
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15 comments:
अपने मनोभावों को रचना में बखूबी प्रस्तुत किया है।
जीवन का बस एक क्रम है
बाप के बीमार होने पर
बहू का बड़बड़ाना
बेटे का दवा लाने में
बहाने बनाना सुनकर
क्यों अतीत में लौट आते हैं
परिवर्तन को सहज़
स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?
इतना शोर क्यों मचाते हैं?
शोभा जी
कटु सत्य कहा है आपने...शत प्रतिशत सही...हम परिवर्तन को दिल से स्वीकार लें तो सारे दुःख ही समाप्त हो जायें...हम ये चाहते हैं की ख़ुद ना बदलें लेकिन दूसरे हमारे हिसाब से बदल जायें...जो सम्भव नहीं होता...
नीरज
सत्य रचना ..........
bhut sahi kaha hai. parivatan hi niyam hai. ati uttam jari rhe.
वो कहते है न मोह माया ...वो इसी को कहते है......इससे निकलना पर मुश्किल है ...कटु सत्य कह गयी आप
आप ने एक दम सच कहा हे, लेकिन इन बातो से निकलना असम्भव हे.
परिवर्तन को बहुत सुंदर रूप में आपने इस रचना में ढाला है ...कई पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगी है इस में
परिवर्तन को सहज़
स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?
इतना शोर क्यों मचाते हैं?
कटु सत्य ...बहुत बढिया.
इसीलए मनुष्य को गीता के सिद्धांतों के अनुरूप निस्पृह और वीतरागी होना चाहिए और कभी भी किसी से कोई अपेक्षा नही करनी चाहिए
sundar aur sarthak panktiyaan hai shobha dii...magar vyavhaar me laani utni hi kathin
very well said and truth of life. liked reading it ya.
Regards
शोभा जी.
कविता बहुत ही अच्छी और मार्मिक है.
जीवन की कड़वी सच्चाई बयान की आपने.
पर मेरा एक प्रश्न है.
क्यों स्वीकारें उस परिवर्तन को जो नाजायज़ हो, ग़लत हो अपराधी हो?
क्यों नहीं लड़ें उस स्थिति से जिससे ये परिवर्तन आतें है?
shobha ji
parivartano ki duniyaa ne udana sikhayaa
dharti chhod, chand per jaanaa sikhayaa
per hum bedard wahin ke wahin hai
kisika chhinane se baaj nahin aaye
raesh
और जब वह बड़ा होकर पत्नी के परिरम्भण में
असीम सुख पाता है उसी की हाँ में हाँ मिलाता है
तब माँ-बाप को ये समझ क्यों नहीं आता है
कि-- परिवर्तन सृष्ट का नियम है
Shobhaji, this is a naked truth of human life. Aapne bahut hi sadharan se shabdon mein iska bahut hi sunder chitran kar diya hai. This is the cycle of life. Every son has to face this truth while he is getting older and his new baby plays the same role of his life. The only thing - you leave the expectations behind if you want to be happy. No expectations - No sorrows.
शोभा जी,
समय का अन्तराल ही शायद परिवर्तन को आसानी से न स्वीकारने का कारण है...
मनुष्य जीवन में शायद वही सब बदले में चाहता है जो उसने दिया होता है... शायद उससे भी अधिक और जब उसे स्तर से भी नीचे का नहीं मिलता तो दुखी होता है...
कहना आसान है परन्तु जीवन कविता नहीं है..उसे भोगना होता है.. यही दुख का कारण है
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