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परिवर्तन

>> Monday, July 28, 2008


परिवर्तन सृष्टि का नियम है

परिवर्तन जीवन का क्रम है

परिवर्तन एक अकाट्य सत्य है

फिर भी ----

हम परिवर्तन को स्वीकार

क्यों नहीं कर पाते हैं ?

जरा-जरा सी बात पर

क्यों इतना घबराते हैं ?


बचपन में अबोध बच्चा

जब माता की छाती से चिपक

तोतली जुबान में प्यार जताता है

माँ-बाप की आँखों में तब

तृप्ति एवँ सन्तोष का

भाव उभर आता है

और जब वह बड़ा होकर

पत्नी के परिरम्भण में

असीम सुख पाता है

उसी की हाँ में हाँ मिलाता है

तब माँ-बाप को ये

समझ क्यों नहीं आता है

कि-- परिवर्तन सृष्ट का नियम है


जीवन का बस एक क्रम है

बाप के बीमार होने पर

बहू का बड़बड़ाना

बेटे का दवा लाने में

बहाने बनाना सुनकर

क्यों अतीत में लौट आते हैं

परिवर्तन को सहज़

स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?

इतना शोर क्यों मचाते हैं?


बस मान लो यह कि

यह एक अकाट्य सत्य है

इसको स्व की सीमाओं में

कैद ना करना बेकार है

यह ईश की अनोखी देन

और उसका अनुपम

उपहार है ।

सृष्टि का श्रृंगार है ।

15 comments:

परमजीत सिहँ बाली July 28, 2008 at 6:34 PM  

अपने मनोभावों को रचना में बखूबी प्रस्तुत किया है।
जीवन का बस एक क्रम है

बाप के बीमार होने पर


बहू का बड़बड़ाना


बेटे का दवा लाने में


बहाने बनाना सुनकर


क्यों अतीत में लौट आते हैं


परिवर्तन को सहज़


स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?


इतना शोर क्यों मचाते हैं?

नीरज गोस्वामी July 28, 2008 at 6:53 PM  

शोभा जी
कटु सत्य कहा है आपने...शत प्रतिशत सही...हम परिवर्तन को दिल से स्वीकार लें तो सारे दुःख ही समाप्त हो जायें...हम ये चाहते हैं की ख़ुद ना बदलें लेकिन दूसरे हमारे हिसाब से बदल जायें...जो सम्भव नहीं होता...
नीरज

vipinkizindagi July 28, 2008 at 6:56 PM  

सत्य रचना ..........

Anonymous July 28, 2008 at 7:03 PM  

bhut sahi kaha hai. parivatan hi niyam hai. ati uttam jari rhe.

डॉ .अनुराग July 28, 2008 at 7:14 PM  

वो कहते है न मोह माया ...वो इसी को कहते है......इससे निकलना पर मुश्किल है ...कटु सत्य कह गयी आप

राज भाटिय़ा July 28, 2008 at 7:47 PM  

आप ने एक दम सच कहा हे, लेकिन इन बातो से निकलना असम्भव हे.

रंजू भाटिया July 28, 2008 at 9:18 PM  

परिवर्तन को बहुत सुंदर रूप में आपने इस रचना में ढाला है ...कई पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगी है इस में

परिवर्तन को सहज़

स्वीकर क्यों नहीं कर पाते हैं ?

इतना शोर क्यों मचाते हैं?

Udan Tashtari July 29, 2008 at 12:24 AM  

कटु सत्य ...बहुत बढिया.

Arvind Mishra July 29, 2008 at 7:20 AM  

इसीलए मनुष्य को गीता के सिद्धांतों के अनुरूप निस्पृह और वीतरागी होना चाहिए और कभी भी किसी से कोई अपेक्षा नही करनी चाहिए

पारुल "पुखराज" July 29, 2008 at 10:16 AM  

sundar aur sarthak panktiyaan hai shobha dii...magar vyavhaar me laani utni hi kathin

seema gupta July 29, 2008 at 1:43 PM  

very well said and truth of life. liked reading it ya.

Regards

बालकिशन July 29, 2008 at 2:36 PM  

शोभा जी.
कविता बहुत ही अच्छी और मार्मिक है.
जीवन की कड़वी सच्चाई बयान की आपने.
पर मेरा एक प्रश्न है.
क्यों स्वीकारें उस परिवर्तन को जो नाजायज़ हो, ग़लत हो अपराधी हो?
क्यों नहीं लड़ें उस स्थिति से जिससे ये परिवर्तन आतें है?

Anonymous July 29, 2008 at 5:03 PM  

shobha ji
parivartano ki duniyaa ne udana sikhayaa
dharti chhod, chand per jaanaa sikhayaa
per hum bedard wahin ke wahin hai
kisika chhinane se baaj nahin aaye

raesh

Rajesh July 30, 2008 at 11:11 AM  

और जब वह बड़ा होकर पत्नी के परिरम्भण में
असीम सुख पाता है उसी की हाँ में हाँ मिलाता है
तब माँ-बाप को ये समझ क्यों नहीं आता है
कि-- परिवर्तन सृष्ट का नियम है
Shobhaji, this is a naked truth of human life. Aapne bahut hi sadharan se shabdon mein iska bahut hi sunder chitran kar diya hai. This is the cycle of life. Every son has to face this truth while he is getting older and his new baby plays the same role of his life. The only thing - you leave the expectations behind if you want to be happy. No expectations - No sorrows.

Mohinder56 August 1, 2008 at 4:13 PM  

शोभा जी,

समय का अन्तराल ही शायद परिवर्तन को आसानी से न स्वीकारने का कारण है...

मनुष्य जीवन में शायद वही सब बदले में चाहता है जो उसने दिया होता है... शायद उससे भी अधिक और जब उसे स्तर से भी नीचे का नहीं मिलता तो दुखी होता है...

कहना आसान है परन्तु जीवन कविता नहीं है..उसे भोगना होता है.. यही दुख का कारण है

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