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मँहगाई

>> Monday, August 11, 2008


रोज बढ़ जाती हैं ज़ालिम कीमतें

क्या खरीदूँ और किसका नाम दूँ


हर कदम मँहगाई का दानव खड़ा

कैसे अपने दिल को मैं आराम दूँ।

आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ


रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ

हैं सजे बाज़ार छाई रौनकें
एक चादर इनपे लाओ डाल दूँ।

आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।

जल रहा है देश इसकी आग में
अब शुभी किसको यहाँ इल्ज़ाम दूँ।

21 comments:

Shiv August 11, 2008 at 5:24 PM  

हैं सजे बाज़ार छाई रौनकें
एक चादर इनपे लाओ डाल दूँ।

बहुत सुंदर..

Anshu Mali Rastogi August 11, 2008 at 5:37 PM  

आपकी कविता उम्दा है। बधाई।

Advocate Rashmi saurana August 11, 2008 at 5:39 PM  

bhut sahi baat rachana me. badhai ho.

रंजू भाटिया August 11, 2008 at 7:22 PM  

रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ

बहुत खूब सही कहा ..

डॉ .अनुराग August 11, 2008 at 7:53 PM  

सही कहा......आपने ...
आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ

कामोद Kaamod August 11, 2008 at 8:13 PM  

आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ

वाह वाह . क्या लिखा है.
बहुत सुंदर..

कुश August 11, 2008 at 8:15 PM  

हैं सजे बाज़ार छाई रौनकें
एक चादर इनपे लाओ डाल दूँ।

ये तो आपने हर इक के मन में उत्पन्न होने वेल भाव लिख दिए.. बहुत सुंदर

Udan Tashtari August 11, 2008 at 10:53 PM  

आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।
-बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.

Udan Tashtari August 11, 2008 at 10:53 PM  

आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।
-बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.

राज भाटिय़ा August 12, 2008 at 1:37 AM  

आँख में चुभती हैं लाखों ख्वाइशें
दर्द इनका आँसुओं में ढ़ाल दूँ।
कया बात कही हे आप ने , सच मे इस महगाई ने तो आम आदमी की कमर ही तोड दी हे,धन्यवाद

बालकिशन August 12, 2008 at 7:10 AM  

सुंदर और प्रभावी प्रस्तुति.
बहुत अच्छे

seema gupta August 12, 2008 at 4:47 PM  

रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ
" ytharth se prepurn pankteeyan, "
Regards

seema gupta August 12, 2008 at 4:47 PM  
This comment has been removed by the author.
Smart Indian August 13, 2008 at 8:44 AM  

काश सत्य सुंदर भी हो. आप हमेशा ही बहुत अच्छा लिखती हैं. यह कविता भी बहुत ही सुंदर है. महंगाई का दर्द थोड़ा कम हुआ इसे पढ़कर. धन्यवाद!

Unknown August 13, 2008 at 5:53 PM  

अश्कों से क्या समझोगे हाल ए दिल जिगर का,
आंखों तक आते आते रंग उड़ गया लहू का..

आपकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति बहुत गहरे तक है। ज़िंदगी के फलसफे पर कुछ लिखा हो तो, साझा कीजिए। आपकी मां पर लिखी कविता बहुत ही उम्दा लगी। आंखों के किसी कोर में एक आंसू झलक आया। बहुत बहुत बधाई, शोभा जी।

पंकज शुक्ल
pankajshuklaa@gmail.com
09987307136

सुनीता शानू August 13, 2008 at 6:12 PM  

रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ
वैसे तो कविता की हर पंक्ति अच्छी है मगर ये कुछ ज्यादा अच्छी और सच्ची है...

Ila's world, in and out August 14, 2008 at 2:39 PM  

आपकी कविता की जितनी भी तारीफ़ की जये कम है.आम इन्सान की व्यथा को खूब उकेरा है आपने.

महेन्द्र मिश्र August 17, 2008 at 4:36 PM  

samvedanasheel post bahut sundar.apko bhi bhi ajadi diwas ki dhero shubhakamana .

Rajesh August 28, 2008 at 4:34 PM  

आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ
रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ
A great thought Shobhaji, aaj ke daur ka sahi chitra varnan kiya hai aap ne. Bhookh ko ab kis kuen mein daal doon! this is a fantastic sentence of the poem. Congratulations for such a beautiful write up......

Rajesh August 28, 2008 at 4:34 PM  

आरजूएँ दफ्न होकर रह गईं
भूख को अब किस कुँए में डाल दूँ
रिश्ते-नाते भी हुए बेज़ान से
ज़ेब में कौड़ी नहीं जो बाँट दूँ
A great thought Shobhaji, aaj ke daur ka sahi chitra varnan kiya hai aap ne. Bhookh ko ab kis kuen mein daal doon! this is a fantastic sentence of the poem. Congratulations for such a beautiful write up......

महेन्द्र मिश्र September 1, 2008 at 8:42 PM  

जल रहा है देश इसकी आग में,
अब शुभी किसको यहाँ इल्जाम दे.
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति बधाई .

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