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मैं नास्तिक नहीं हूँ

>> Wednesday, May 7, 2008


मैं नास्तिक नहीं हूँ

भगवान!

तुम्हारे अस्तित्व को भी

मैने कभी नहीं नकारा

फिर भी……

दुनिया के प्रति तुम्हारी उपेक्षा

मेरा विश्वास डिगा देती है

देखती हूँ जब भी

किसी दुर्बल को हारता

तुम्हारी शक्ति गाथा

एकदम खोखली लगती है

जब भी पढती हूँ

शील हरण की बात

द्रोपदी की लाज लुटती सी

नज़र आती है

उस युग की संवेदनाएँ

इस युग में कहाँ लुप्त हो गई?

तुम्हारी भक्त वत्सलता

किस कोनो में जा सो गई ?

है कोई उत्तर……

बोलो मेरे भगवान!

कैसे बचेगी आस्था

कैसे टिकेगा विश्वास

यदि मूक हो जाओगे तुम

किसको पुकारेंगें प्राण ?

9 comments:

Anonymous May 7, 2008 at 9:29 PM  

bahut achha

आशीष "अंशुमाली" May 7, 2008 at 9:46 PM  

यदि मूक हो जाओगे तुम

किसको पुकारेंगें प्राण ?

इस अन्‍तर्व्‍याकुलता में बड़ी मिठास है, शोभा जी।

राज भाटिय़ा May 7, 2008 at 11:32 PM  

होनी तो हो के रहे अन्होनी ना होये

Udan Tashtari May 8, 2008 at 12:18 AM  

सही भाव उकेरे हैं!

डॉ० अनिल चड्डा May 8, 2008 at 6:29 AM  

सही शिकायत है भगवान से ।

rakhshanda May 8, 2008 at 11:16 AM  

सुंदर है..

Mohinder56 May 8, 2008 at 4:41 PM  

मुश्किलें इम्तहान लेती हैं..
संसार में दो तरह के दुख हैं... एक तो जो हमारे हाथ में नहीं और एक जो हमारी इच्छाओं के कारण उत्पन्न होते हैं... दूसरी तरह के दुख ही ज्यादा होते हैं...
इच्छाओं पर विजय का अर्थ है दुखों से मुक्ति.

सुन्दर रचना के लिये आभार

Rajesh May 9, 2008 at 12:21 PM  

उस युग की संवेदनाएँ

इस युग में कहाँ लुप्त हो गई?

तुम्हारी भक्त वत्सलता

किस कोनो में जा सो गई ?

Yug yug mein yahi antar hota hai Shobhaji. Ab vaise bhakt bhi nahi rahe aur vaisi bhakti bhi nahi hi rahi. Sab deekhava ho gaya hai bhakti aur bhakton ka. Shayad sachhe mann ke prarthana ki kami hai aur isi liye Bhagwan bhi nisthur ho gaye hai.... Per aapka dard kafi sarahniya hai

Unknown May 28, 2008 at 9:56 AM  

आपकी रचना ने मेरे मन में कुछ भाव जगा दिए. यह भाव बन गए एक नई रचना. धन्यवाद.

मेरे ब्लाग काव्य कुञ्ज पर पधारें. आप का स्वागत है.

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