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हिन्दी से मुलाकात

>> Wednesday, September 8, 2010

कल रात स्वप्न में

मेरी मुलाकात हिन्दी

से हो गई ।

डरी,सहमी कातर

हिन्दी को देखकर

मैं हैरान सी हो गई ।

मैंने पूछा -

तुम्हारी यह दशा क्यों ?

तुम तो राष्ट्र भाषा हो ।

देश का स्वाभिमान हो ।

हिन्द की पहचान हो ।

यह सुनते ही--

हिन्दी ने कातर नज़रों से

मेरी ओर देखा ।

उसकी दृष्टि में जाने क्या था

कि मैं पानी-पानी हो गई ।

मेरे अन्तर से जवाब आया

जिस देश में राष्ट्र भाषा

की यह दशा हो--

उसे राष्ट्रीय अस्मिता की बातें

करने का क्या अधिकार है ?

जब विदेशी ही अपनानी है

तो इतना अभिनय क्यों ?

हिन्दी-दिवस जैसी औपचारिकताएँ

कब तक सच्चाई पर पर्दा

डाल पाएँगी ?

शर्म से मेरी आँखें

जमीन में गड़ जाती हैं

और चुपचाप आगे बढ़ जाती हूँ ।

किन्तु एक आवाज़

कानों में गूँजती रहती है ।

और बार-बार कहती है -

हिन्दी -दिवस मनाने वालो

हिन्दी को भी तुम अपनाओ ।

क्योंकि--

अपनी भाषा ही उन्नति दिलाएगी

किन्तु अगर

अपनी माँ ही भिखारिन रही तो--

पराई भी कुछ नहीं दे पाएगी ।

कुछ नहीं दे पाएगी -----
Labels: शोभा महेन्द्रू | Shobha Mahendru

11 comments:

मनोज कुमार September 8, 2010 at 8:47 PM  

स्वतंत्रता प्राप्ति के 63 वर्षों पश्‍चात् भी हिन्दी को वह दर्ज़ा नहीं मिल पाया है, जिसकी वह हक़दार है। इसके पीछे बड़ी बाधा है --- हमारी मानसिकता। हममें से अधिकांश व्यक्ति अंग्रेज़ी बोलने में गर्व महसूस करता है और हिन्दी बोलते समय उसे हीनता का अनुभव होता है। क्योंकि, हमारी दृष्टि में प्रत्येक विदेशी वस्तु श्रेष्ठ है, भले वह कोई उपभोक्ता सामग्री हो, पॉप गीत या फिर भाषा।

देसिल बयना-खाने को लाई नहीं, मुँह पोछने को मिठाई!, “मनोज” पर, ... रोचक, मज़ेदार,...!

दिगम्बर नासवा September 9, 2010 at 5:15 PM  

बिल्कुल सच लिखा है अपने ... ६३ वर्ष पश्चात भी आज हम हिन्दी और भारतीयता को वो सम्मान नही दे पाए हैं अपने ही देश में .... कैसी विडंबना है.....

संगीता स्वरुप ( गीत ) September 10, 2010 at 9:04 AM  

सार्थक लेखन ...जब तक हम स्वयं अपनी भाषा को मान नहीं देंगे तब तक दूसरे हमारी भाषा को महत्त्व क्यों देंगे ?

Dr.Ajit September 10, 2010 at 7:50 PM  

समसामयिक,सारगर्भित,और प्रासंगिक रचना..

बधाई उम्दा लेखन के लिए !

डा.अजीत
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प्रवीण पाण्डेय September 10, 2010 at 10:06 PM  

आँखें खोल देने वाली रचना।

वीरेंद्र सिंह September 11, 2010 at 1:27 PM  

हिन्दी -दिवस मनाने वालो
हिन्दी को भी तुम अपनाओ ।
क्योंकि--
अपनी भाषा ही उन्नति दिलाएगी
किन्तु अगर
अपनी माँ ही भिखारिन रही तो--
पराई भी कुछ नहीं दे पाएगी ।

सच बात कही है आपने....
मैं आपसे सहमत हूँ .
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा.
एक उम्दा रचना के लिए आपको बधाई

ZEAL September 11, 2010 at 2:03 PM  

.

खुशनसीब हैं आप , जो हिंदी आपके सपनों में आई। लेकिन आपने अपना सपना हम सबके साथ बाँट कर , हमें भी नीद से जगा दिया।

आत्मा को झकझोर देने वाली प्रस्तुति के लिए आपका आभार।

.

DR.ASHOK KUMAR September 11, 2010 at 2:46 PM  

बहुत खूबसूरत रचना। हिन्दी भाषा के प्रयोग के लिए उत्प्रेरित करती एक बहतरीन पोस्ट। आभार! -: VISIT MY BLOG :- जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ ............. गजल को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।

Coral September 11, 2010 at 5:14 PM  

बहुत सुन्दर रचना !

Anupama Tripathi September 12, 2010 at 7:14 PM  

शोभा जी -मेरे ब्लॉग से जुड़ने पर आभार -
आपका लेखन भी बहुत अच्छा है -
हिंदी के लिए बहुत बढ़िया सोच है -
अनेक शुभकामनाएं .

रंजना September 13, 2010 at 4:24 PM  

क्या बात कही है आपने....
हिंदी ही नहीं असंख्य हिंदी प्रेमियों के भी मन की व्यथा को शब्दों में ढाल आपने यहाँ रख दिया है...
सत्य ही तो है...अपनी माँ चीथड़े में लिपटी है और हम सर उठाकर घूम रहे हैं,इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है...

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