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हम और तुम

>> Saturday, November 17, 2007



हम और तुम
सदैव एक दूसरे
की ओर आकर्षित
कभी तृप्त,कभी अतृप्त
कभी आकुल,कभी व्याकुल
किसी अनजानी कामना से
बढ़ते जा रहे हैं ----

मिल जाएँ तो विरक्त
ना मिल पाएँ तो अतृप्त
कभी रूष्ट, कभी सन्तुष्ट
कामनाओं के भँवर में
उलझते जा रहे हैं --

सामाजिक बन्धनों से त्रस्त
मर्यादा की दीवारों में कैद
सीमाओं से असन्तुष्ट
स्वयं से भी रूष्ट
दुःख पा रहे हैं --

निज से भी अनुत्तरित
विचारों से परिष्कृत
हृदय से उदार
भीतर से तार-तार
कहाँ जा रहे हैं ?

चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
सारे द्वन्द्व जा रहे हैं--
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --

हमें तो लूट लिया--

>> Saturday, November 10, 2007


हमें तो लूट लिया मिल के इन घोटालों ने
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने

हिन्दु और मुस्लिम के नाम पर लड़वाते हैं
पीछे रहकर के ये दंगे बहुत फैलाते हैं
हिन्दू मरते हैं कभी मुस्लिम कुचल जाते हैं
मीटिंग में बैठ कर ये दावतें उड़ाते हैं
कभी हिन्दू कभी मुस्लिम तुम्हें
तड़पता देश है ये दावतें उड़ाते हैं
ज़हर को बाँटकर ये मौज़ खुद मनाते हैं
फँस ना जाना कभी तुम इनकी चालों में
ऊँची कुर्सी वालों ने बेईमान चालों ने

पाँच सालों में केवल एक बार आते हैं
झूठी वादे और झूठी कसमें खाते हैं
बड़े-बड़े कामों के सपने हमें दिखाते हैं
जन-जन की सेवा में खुद को लगा बताते हैं
भोली सूरत से सारे लोगों को बहकाते हैं
हाथों को जोड़ते मस्तक कभी झुकाते हैं
गरीब लोगों को ये झूठे स्वप्न दिखाते हैं
समझ ना पाए कोई ऐसा जाल बिछाते हैं
धोखा ना खाना भाई दिन के इन उजालों में
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने

संसद में बैठकर हल्ला बहुत मचाते हैं
कभी कुर्सी कभी टेबल को पटक जाते हैं
बहस के नाम पर ये शोर भी मचाते हैं
लड़ते हैं ऐसे जैसे बच्चे मचल जाते हैं
सभी चीज़ों पे ये टैक्स खूब लगाते हैं
दिखाते ख्वाब सस्ते का और मँहगाई बढ़ाते हैं
आरक्षण के नाम पर ये बेवकूफ बनाते हैं
कभी इनको-कभी उनको आरक्षित कर जाते हैं
पढ़ने वालों की मेहनत बह रही है नालों में
बेईमान चालों ने ऊँची कुर्सी वालों ने
हमें तो लूट लिया मिलके इन -----

त्योहारों का मौसम

>> Tuesday, November 6, 2007


लो आगया फिर से
त्योहारों का मौसम
उनके लूटने का
हमारे लुट जाने का मौसम
बाजारों में रौशनी
चकाचौंध करने लगी है
अकिंचनो की पीड़ा
फिर बढ़ने लगी है
धनी का उत्साह
और निर्धन की आह
सभी ढ़ूँढ़ रहे हैं
खुशियों की राह
व्यापारी की आँखों में
हज़ारों सपने हैं
ग्राहकों को लूटने के
सबके ढ़ग अपने हैं
कोई सेल के नाम पर
कोई उपहार के नाम पर
कोई धर्म के नाम पर
आकर्षण जाल बिछा रहा है
और बेचारा मध्यम वर्ग
उसमें कसमसा रहा है
उसका धर्म और आस्था
खर्च करने को उकसाते हैं
किन्तु जेब में हाथ डालें तो
आसूँ निकल आते हैं ।
सजी हुई दुकानें
और जगमगाते मकान
उसे मुँह चिढ़ाते हैं
सोचने लगती हूँ मैं
ये त्योहार क्यूँ आते हैं ?

दीपावली

>> Thursday, November 1, 2007


दीपावली नाम है प्रकाश का
रौशनी का खुशी का उल्लास का
दीपावली पर्व है उमंग का प्यार का
दीपावली नाम है उपहार का
दीवाली पर हम खुशियाँ मनाते हैं
दीप जलाते नाचते गाते हैं
पर प्रतीकों को भूल जाते हैं ?
दीप जला कर अन्धकार भगाते हैं
किन्तु दिलों में -
नफरत की दीवार बनाते है ?
मिटाना ही है तो -
मन का अन्धकार मिटाओ
जलाना ही है तो -
नफ़रत की दीवार जलाओ
बनाना ही है तो -
किसी का जीवन बनाओ
छुड़ाने ही हैं तो -
खुशियों की फुलझड़ियाँ छुड़ाओ
प्रेम सौहार्द और ममता की
मिठाइयाँ बनाओ ।
यदि इतना भर कर सको आलि

तो खुल कर मनाओ दीपावली

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