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जवाहर लाल नेहरू का अर्थ है- प्रत्यक्ष ऋतुराज

>> Friday, November 13, 2009

जवाहर लाल नेहरू का अर्थ है- प्रत्यक्ष ऋतुराज,चिर जीवन और आनन्द का पुतला। उन्होने एक

शानदार जीवन जिया । सामान्य जीवन नहीं अपितु एक सार्थक जीवन। वे विश्व मानस थे। उन्होने

अपनी दुनिया में होरहे शोषण और अन्याय को खत्म करने के लिए अपनी शक्तियों का सद् उपयोग

किया, पंडित जवाहर लाल नेहरू मूल रूप से काश्मीरी ब्राह्मण थे। उनके परदादा को राजकौल नहर

के किनारे जगह मिली थी इसी से नेहरू कहलाए। इनका जन्म १४ नवम्बर १८८९ को इलाहाबाद में

एक धनाड्य परिवार में हुआ। माँ-बाप धनी और इकलौता बेटा हो तो अक्सर बिगड़ जाता है।

किन्तु इनको बचपन में ही उच्च संस्कार मिले। माँ और चाची की गोद में बैठकर रामायण और

महाभारत की कहानियाँ सुनीं। धनी परिवार ने बच्चे के शिक्षा के लिए अंग्रेज शिक्षक घर पर ही

नियुक्त किया । उन्होने उसके साथ रहकर काम में मन लगाना, बड़ों का आदर करना, कभी अपने

को हीन ना समझना, सब तरफ का ग्यान रखना तथा साफ रहना सीखा।

उच्च शिक्षा कैमरिज में हुई। वहीं पर देश की पुकार इनके कानों में पड़ी। मेरी कहानी में उन्होने

लिखा - यह हिन्दुस्तान क्या है जो मुझपर छाया बन हुआ है और मुझे बराबर अपनी ओर बुलाहै

रहा । उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था। उनके व्यक्तित्व के निम्न पहलू मंत्र मुग्ध करने वाले हैं।

एक कुशल राजनेता- नेहरू जी एक कुशल राजनेता थे। गाँधी जी के नेतृत्व में राजनीति में प्रवेश

किया। उन्होने जन मानस को समझा। उनकी पीड़ा को दूर करने का बीड़ा उठाया। आज़ादी के बार

देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देश को एक नई दिश दी। किसानो की समस्याओं को समझा
और दूर किया।

एक साहित्यकार -एक कुशल नेता के साथ-साथ वे एक उच्च कोटि के लेखक भी थे। अपने व्यस्त

जीवन से समय निकालकर साहित्य साधना करते थे। उनके पास भाषा का भंडार था, शैली रोचक

थी और कहने का ढ़ंग मनमोहक। जो भी लिखा हृदय से लिखा। उन्होने दर्जन से भी अधिक पुस्तकें

लिखी। उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय रहीं- मेरी कहानी, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत एक

खोज,लड़खड़ाती सी दुनिया,हमारी समस्याएँ, पिता के पत्र पुत्री के नाम आदि। इनकी भाषा

थिरकती हुई तथा शब्द बोलते हुए से लगते हैं। लेखन में उनका खुला हैदय झाँकता है। जेलों में

अपने समय उन्होने लेखन में ही बिताया। पिता के पत्र पुत्री के नाम यहीं लिखे। ये आज भी बच्चों

को प्रेरणा देते हैं।

लोकप्रिय नेता -देश की जनता उनसे बहुत प्यार करती थी। उनकी वाणी में जादू का सा प्रभाव था।

उन्हें देख लोग बहुत प्रसन्न होते थे। वे भी भारत की जनता से बेहद प्यार करते थे। इसीलिए उन्हें

जनता का जवाहर कहा जाता था। वे लोगों के बीव जाते, उनकी समस्याओं को समझते और उनसे

सम्पर्क करते थे। एक आम भारतीय भी उनसे मिलने में संकोच नअीं करता था। कहते हैं एक

बार उनके जन्मदिन पर एक किसान बहुत दूर से शहद की एक हाँडी लेकर आया। मिलने का समय

समाप्त हो चुका था। जवाहर लाल जी आराम करने ही जा रहे थे। उन्होने आवाज़ सुनी। कारण पूछा

और बाहर आए। किसान ने कहा- मैं बहुत दूर से आया हूँ इसलिए देर हो गई। नेहरू जी ने एक

अँगुली भर कर शहद अपने मुँह में डाला और दूसरी अँगुली ग्रामीण के मुँह में । बोले आज सबसे

कीमती उपहार तुमने ही मुझे दिया है। ग्रामीण बाग-बाग हो गया। फिर शाही सवारी में उसे घर

तक छुड़वाया। भला इतना प्रेम देख कौन दिवाना ना हो जाएग.


बच्चों के प्यारे चाचा बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू जी का सर्वाधिक प्रिय रूप था चाचा नेहरू का रूप।

वे बच्चों से बहुत प्रेम करते थै। अपना अधिकतर समय बच्चों के साथ बिताते और उस समय

स्वयं भी बच्चे बन जाते थे। पिता के पत्र पुत्री के नाम बच्चों के लिए ग्यान का भंडार है। चाचा

नेहरू का नाम लेते ही एक ऐसी छवि आँखों के सामने आती है जिसकी आँखों में बच्चों के लिए

असीम प्यार हो और जिसकी बाँहें सदा उन्हें गोद में लेने को आतुर रहती हैं। बच्चों के नाम उन्होने

एक लम्बा खत लिखा था मानो अपना दिल ही खोलकर रख दिया हो- प्यारे बच्चों तुम लोगों के

बीच में रहना मैं पसन्द करता हूँ। तुमसे बातें करने में और तुम्हारे साथ खेलने में मुझे बड़ा मज़ा

आता है। थोड़ी देर के लिए मैं भूल जाता हूँ कि मैं बेहद बूढ़ा हो चला हूँ। पत्र के अन्त में लिखा-

हमारा देश एक बहुत बड़ा देश है और हम सबको मिलजुल कर अपने देश के लिए बहुत कुछ करना

है। जिसका हृदय जितना नि्छल होगा, बच्चों के लिए उतना ही प्यार उसके दिल में होगा। बच्चों के

साथ वे स्वयं भी बच्चे बन जाते थे। एक बार बच्चों के कार्यक्रम में उन्होने भी नृत्य किया। एक बार

उनसे पूछा गया- शैतान लड़कों को कैसे सुधारा जाय ? उन्होने कहा- बच्चे को अपनी तरफ प्रेम से

खींचें। बच्चों के लालन-पालन में आपको क्या दोष दिखता है- आम तौर से हिन्दुस्तान में लाड़-

प्यार से बच्चों का नुकसान हो जाता है। वेदेशों में भी बच्चे उनसे बहुत प्यार करते थे। वे अक्सर

बच्चों के बारे में कहा करते थे- अगर तुमको भारत का भविष्य जानना है तो बच्चों की आँखों में

देखो। यदि उनकी आँखों में निराशा , डर और कमजोरी है, तो देश भी उसी दिशा में जाएगा और

उसका भविष्य भी अँधकार मय होगा। इसप्रकार नेहरू जी को याद करना है तो देश के बच्चों को

पूरी सुविधाएँ , उनको प्यार, अच्छा वातावरण और उन्नति के अवसर दो। उनसे प्यार करो।

जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर........

>> Sunday, September 27, 2009

प्रिय पाठकों !
यह सप्ताह भारत के इतिहास का एक विशिष्ट सप्ताह है। १०० वर्ष पहले इसी सप्ताह इस धरती पर दो महान

विभूतियों ने जन्म लिया था। एक क्रान्तिदूत , शहीदे आज़म भगत सिंह और दूसरे राष्ट कवि रामधारी सिंह

दिनकर। दोनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण से देश को दिशा निर्देशन किया। एक जीवन की कला के पुजारी रहे

और दूसरे ने सोद्देश्य मृत्यु अपनाकर विश्व को हर्ष मिश्रित आश्चर्य में डाल दिया। भगत सिंह का मानना था

कि तिल-तिल मरने से अच्छा है स्वयं सहर्ष सोद्देश्य मृत्यु का वरण करो और दिनकर का मानना था कि

जियो तो ऐसा जीवन जियो कि जान डाल दो ज़िन्दगी में। एक ने बलिदान की तथा एक ने संघर्ष की राह

दिखाई।

भगत सिंह एक विचारशील उत्साही युवा थे जिन्होने बहुत सोच समझकर असैम्बली में बम विस्फोट किया

। वे जानते थे कि इसका परिणाम फाँसी ही होगा किन्तु ये भी समझते थे कि उनका बलिदान देश के

क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा देगा और अंग्रेजों का आत्मबल कम करेगा। मरा भगत सिंह ज़िन्दा

भगत सिंह से अधिक खतरनाक साबित होगा और वही हुआ। उनके बलिदान के बाद क्रान्ति की लहर सी

आगई। २४ वर्ष की आयु में उन्होने वो कर दिखाया जो सौ वर्षों में भी सम्भव नहीं था। उन्होने देश को

स्वतंत्रता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का महत्व बता दिया। परिणाम स्वरूप आज़ादी के बाद लोकतंत्र

की स्थापना हुई। ये और बात है कि यदि वे आज देश की दशा देखें तो दुखी हो जाएँ।

दूसरे महान व्यक्तित्व थे राष्ट कवि दिनकर। दिनकर जी जीने की कला के पुजारी थे।


२ वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो गया। बचपन अभावों में बीता। सारा जीवन रोटी के लिए संघर्ष

किया और अवसाद के क्षणों में काव्य की आराधना की। सरकारी नौकरी करते हुए देश भक्ति और क्रान्ति

से भरा काव्य लिखा और क्रान्ति का मंत्र फूँका। हुँकार, सामधेनी, रश्मि रथी, कुरूक्षेत्र ने देश के लोगों में

आग जला दी। पद्मभूषण और ग्यानपीठ पुरुस्कार प्राप्त करने वाला कवि साधारण मानव की तरह विनम्र

था। कभी-कभी आक्रोश में आजाता था। उन्होने समाज में संतों और महात्माओं की नहीं , वीरों की

आवश्यकता बताते हुए लिखा-

रे रोक युधिष्ठिर को ना यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर।

पर फिरा हमें गाँडीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से आज करें, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार।

सारे भारत में गूँज उठे, हर-हर बम-बम का महोच्चार

देश के शत्रुओं को भी उन्होने ललकारा और लिखा-

तुम हमारी चोटियों की बर्फ को यों मत कुरेदो।

दहकता लावा हृदय में है कि हम ज्वाला मुखी हैं।

वीररस के साथ-साथ उन्होने श्रृंगार रस का मधुर झरना भी बहाया। उर्वशी उनका अमर प्रेम काव्य है।

जिसमें प्रेम की कोमल भावनाओं का बहुत सुन्दर चित्रण है।

दिनकर का काव्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उनकी कविता भारत के लोगों में नवीन उत्साह जगाती

है। सारा जीवन कठिनाइयों का विषपान करने पर भी समाज को अमृत प्रदान किया। ऐसे युग पुरूष को

मेरा शत-शत नमन।

हिन्दी से मुलाकात

>> Monday, September 14, 2009

कल रात स्वप्न में

मेरी मुलाकात हिन्दी

से हो गई ।

डरी,सहमी कातर

हिन्दी को देखकर

मैं हैरान सी हो गई ।

मैंने पूछा -

तुम्हारी यह दशा क्यों ?

तुम तो राष्ट्र भाषा हो ।

देश का स्वाभिमान हो ।

हिन्द की पहचान हो ।

यह सुनते ही--

हिन्दी ने कातर नज़रों से

मेरी ओर देखा ।

उसकी दृष्टि में जाने क्या था

कि मैं पानी-पानी हो गई ।

मेरे अन्तर से जवाब आया

जिस देश में राष्ट्र भाषा

की यह दशा हो--

उसे राष्ट्रीय अस्मिता की बातें

करने का क्या अधिकार है ?

जब विदेशी ही अपनानी है

तो इतना अभिनय क्यों ?

हिन्दी-दिवस जैसी औपचारिकताएँ

कब तक सच्चाई पर पर्दा

डाल पाएँगी ?

शर्म से मेरी आँखें

जमीन में गड़ जाती हैं

और चुपचाप आगे बढ़ जाती हूँ ।

किन्तु एक आवाज़

कानों में गूँजती रहती है ।

और बार-बार कहती है -

हिन्दी -दिवस मनाने वालो

हिन्दी को भी तुम अपनाओ ।

क्योंकि--

अपनी भाषा ही उन्नति दिलाएगी

किन्तु अगर

अपनी माँ ही भिखारिन रही तो--

पराई भी कुछ नहीं दे पाएगी ।

कुछ नहीं दे पाएगी -----

स्वाधीनता दिवस

>> Friday, August 14, 2009


स्वाधीनता दिवस

जश्न,उत्सव

देशभक्ति गीत और भाषण

और देशभक्ति

नदारद



शहीदों को श्रद्धांजलि

ध्वजारोहण

इतिहास का गौरव गान

बड़े-बड़े वादे

बधाइयों का आदान-प्रदान

और कर्तव्यों की इति


कुछ ही देर बाद

देश को लूटने की योजनाएँ

एकता पर प्रहार

वोट की राजनीति

और कुटिल अट्टाहस



और जनता.....

नेताओं पर दोषारोपण

आरोप-प्रत्यारोप

अपने कर्तव्यों से अंजान

मेरा देश महान

माँ

>> Sunday, May 10, 2009



माँ"
एक प्यारा सा शब्द
एक मीठा सा रिश्ता
प्रेम उदधि
त्याग की मूरत
बलिदान रूप
ईश्वरीय शक्ति
आँचल में समेटे
ममता का सागर
दो प्यारी सी आँखें
ममता से लबालब
राहों में बिछी
देखती हैं सपने
दो कोमल सी बाँहें
सदा संरक्षण को आतुर
एक सच्चा सम्बल
एक शक्ति और एक आस जीवन में भर देती
सदा विश्वास......
.. आज के दिन दूँ
क्यातुमको उपहार
मस्तक झुकाती हूँ
सहित आभार


(चित्र स्मिता तिवारी साभार)http://vahak.hindyugm.com/2007/10/blog-post_1942.html

अंदाज़ अपना-अपना

>> Friday, April 10, 2009

प्यार की प्यास तो दोनो को थी
एक अतृप्त हो भटकता रहा
एक ने अपनी मंज़िल पा ली

रिश्तों के मरूस्थल
दोनो की राहों में थे
एक सूखी रेत से टकराता रहा
एक ने स्नेह की गागर छलका ली।


मर्यादाओं के काँटे
दोनो के जीवन में थे
एक बबूल बन चुभता रहा
एक ने फूलों से डाल सजा ली


स्नेह की रिक्तता
दोनो का नसीब बनी
एक दरिया किनारे प्यासा रहा
एक ने ओस से प्यास बुझा ली


ये अपना-अपना अंदाज़ नहीं तो
और क्या था शुभी
एक ने नसीबों को दोषी ठहराया
एक ने कर्म की राह थाम ली।

मेरा परिचय

>> Saturday, March 21, 2009

मैं तुम पर आश्रित नहीं
स्वयं सिद्धा हूँ

तुम्हारे स्नेह को पाकर
ना जाने क्यों
कमजोर हो जाती हूँ
स्वयं को बहुत असहाय पाती हूँ

शायद इसलिए
तुम्हारे हर स्पर्ष में
प्रेम की अनुभूति होती है

उस प्रेम को पाकर
मैं मालामाल हो जाती हूँ
और अपनी उस दौलत पर
फूली नहीं समाती हूँ

अपनी इच्छा से
अपने को पराश्रित
और बंदी बना लेती हूँ

किन्तु तुम्हारा अहंकार
बढ़ते ही
मेरी जंजीरें स्वयं
टूटने लगती हैं

मेरी खोई हुई शक्ति
पुनः लौट आती है
और मैं आत्म विश्वास से भर
हुँकारने लगती हूँ

मेरी कोमलता
मेरी दुर्बलता नहीं
मेरा श्रृंगार है

यह तो तुम्हें
सम्मान देने का
मेरा अंदाज़ है

वरना नारी
कब किसी की मोहताज़ है ?

होली के रंग

>> Tuesday, March 10, 2009


होली के रंग
और तुम्हारी याद
दोनो साथ-साथ
आ गए….
खिले हुए फूल
और…
बरसते हुए रंग
कसक सी….
जगा गए
आती है जब भी
टेसू की गन्ध
दिल की कली
मुरझा सी जाती है
रंगों में डूब जाने की
चाहत….
बलवती हो जाती है
चेतना बावली होकर
पुकार लगाती है
और शून्य में टकराकर
पगली सी लौट आती है
फाग में झूमती
मस्तों की टोली में
बेबाक….
तुम्हें खोजने लगती हूँ
और आँखें….
अकारण ही बरस जाती हैं
होली की गुजिया
और गुलाल के रंग
बहुत फीके से लगते हैं
कानों में तुम्हारी हँसी
आज भी गूँजती है
आँखें…..
तुम्हे देख नहीं पाती
पर आस है कि
मरती ही नहीं
कानों में….
तुम्हारे आश्वासन
गूँजने लगते हैं
और…..
रंगों को हाथ में लिए
दौड़ पड़ती हूँ
दिमाग पर…
दिल की विजय
यकीन दिलाती है
तुम जरूर आओगे
और मुझे…..
फिर से
अपने रंग दे जाओगे

केवल सबला हो

>> Sunday, March 8, 2009


नारी तुम....
केवल सबला हो
निमर्म प्रकृति के फन्दों में

झूलती कोई अर्गला हो ।

नारी तुम...
केवल सबला हो ।


विष देकर अमृत बरसाती

हाँ ढ़ाँप रही कैसी थाती ।
विषदन्त पुरूष की निष्ठुरता
करूणा के टुकड़े कर जाती
विस्मृति में खो जाती ऐसे
जैसे भूला सा पगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो


कब किसने तुमको माना है
कब दर्द तुम्हारा जाना है
किसने तुमको सहलाया है
बस आँसू से बहलाया है
जिसका भी जब भी वार चला
वह टूट पड़ा ज्यों बगुला हो ।
नारी तुम--
केवल सबला हो
तुम दया ना पा ठुकराई गई
पर फिर भी ना गुमराह हुई
इस स्नेह रहित निष्ठुर जग में
कब तुमसी करूणा-धार बही ?
जिसने तुमको ठुकराया था
उसके जीवन की मंगला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो
कब तक यूँ ही जी पाओगी ?
आघातों को सह पाओगी ?
कब तक यूँ टूटी तारों से
जीवन की तार बजाओगी ?
कब तक सींचोगी बेलों क
उस पानी से जो गंदला हो ?
नारी तुम ---
केवल सबला हो
लो मेरे श्रद्धा सुमन तम्हीं
कुछ तो धीरज पा जाऊँ मैं
अपनी आँखों के आँसू को
इस मिस ही कहीं गिराऊँ मैं
तेरी इस कर्कष नियती पर
बरसूँ ऐसे ज्यों चपला हो ।
नारी तुम --
केवल सबला हो
मेरी इच्छा वह दिन आए
जब तू जग में आदर पाए ।
दुनिया के क्रूर आघातों से
तू जरा ना घायल हो पाए
तेरी शक्ति को देखे जो
तो विश्व प्रकंपित हो जाए ।
यह थोथा बल रखने वाला
नर स्वयं शिथिल-मन हो जाए ।
गूँजे जग में गुंजार यही-
गाने वाला नर अगला हो
नारी तुम....
केवल सबला हो ।
नारी तुम केवल सबला हो ।

मेरी आँखों में

>> Thursday, February 26, 2009


बरस गए हैं मेरी आँखों में

हज़ारों सपने

महकने लगे हैं टेसू

और मन

बावला हुआ जाता है


सपनों की कलियाँ

दिल की हर डाल पर

फूट रही है

और ये उपवन

नन्दन हुआ जाता है


समझ नहीं पा रही हूँ

ये तुम हो या मौसम

जो बरसा है

मुझपर

फागुन बनकर

फिर आया फागुन

>> Wednesday, February 18, 2009

फिर आया फागुन….

फिर आया फागुन

रंगों की बहार

तुम भी आजाओ

ये दिल की पुकार


टेसू के फूलों ने

धरती सजाई

अबीर, गुलाल ने

चाहत जगाई

कोयल की कुहू

डसे बार- बार

तुम भी आ जाओ…
….

खिलती नहीं दिल में

भावों की कलियाँ

सूनी पड़ी मेरे

जीवन की गलियाँ

तुम बिन ना मौसम में

आए बहार

तुम भी आजाओ…..

फिर नयन उन्माद छाया

>> Thursday, February 12, 2009



प्रेम की ऋतु फिर से आई
फिर नयन उन्माद छाया
फिर जगी है प्यास कोई
फिर से कोई याद आयाफिर खिलीं कलियाँ चमन में
रूप रस मदमा रहीं----
प्रेम की मदिरा की गागर
विश्व में ढलका रही
फिर पवन का दूत लेकर
प्रेम का पैगाम आया-----
टूटी है फिर से समाधि
आज इक महादेव की
काम के तीरों से छलनी
है कोई योगी-यति
धीर और गम्भीर ने भी
रसिक का बाना बनाया—
करते हैं नर्तन खुशी से
देव मानव सुर- असुर
‘प्रेम के उत्सव’ में डूबे
प्रेम रस में सब हैं चूर
प्रेम की वर्षा में देखो
सृष्टि का कण-कण नहायाप्रेम रस की इस नदी में
आओ नफ़रत को डुबा दें
एकता का भाव समझें
भिन्नता दिल से मिटा दें
प्रान्तीयता का भाव देखो
राष्ट्रीयता में है समाया--

कौन हो तुम…

>> Saturday, February 7, 2009

कौन हो तुम…
बता दो……
मैं जानना चाहती हूँआकर्षण की डोरी
क्यों फेंक रहे हो?
मैं इसमें बँधती जा रही हूँ
बहुत कुलबुला रही हूँ
सम्मोहन का जाल
क्यों बुन रहे हो?
ये मुझे कसता जा रहा है
मैं इसमें कसमसा रही हूँप्रेम की मदिरा
क्यों बहा रहे हो
ये मुझे मदहोश कर रही है
मैं इसमें डूबती जा रही हूँतुम्हारे सम्मोहन ने मुझे
परवश कर दिया है
दीन और कातर बना दिया हैमैं अपनी सुध-बुध
अपने होशोहवास
सब खो बैठी हूँतुम्हारे ही ध्यान में
हर पल डूबी रहती हूँतुम ये प्रेम की बीन
क्यों बजा रहे हो?
इसपर मैं थिरकती जा रही हूँ
इस थिरकन में आनन्द तो है
पर दर्द की लहरों के साथ
जो मुझे पल भर भी
चैन से जीने नहीं देताऐ दोस्त!
मुझे इतना ना सताओ
मेरी दशा पर
कुछ तो तरस खाओसम्मोहन का गीत
अब ना सुनाओ
जहाँ से आए हो
वहीं लौट जाओ

>> Saturday, January 31, 2009


माँ!
तुम कब तक यूँ ही
कमलासना बनी
वीणा- वादन करती रहोगी?
कभी-कभी अपने
भक्तों की ओर
भी तो निहारो
देखो--
आज तुम्हारे भक्त
सर्वाधिक उपेक्षित
दीन-हीन जी रहे हैं
भोगों के पुजारी
महिमा-मंडित हैं
साहित्य संगीत
कला के पुजारी
रोटी-रोज़ी को
भटक रहे हैं
क्या अपराध है इनका-?
बस इतना ही- -
कि इन्होने
कला को पूजा है?
ऐश्वर्य को
ठोकर मार कर
कला की साधना
कर रहे हैं ?
कला के अभ्यास में
इन्होने
जीवन दे दिया
किन्तु लोगों का मात्र
मनोरंजन ही किया ?
माँ!
आज वाणी के पुजारी
मूक हो चुके हैं
और वाणी के जादूगर
वाचाल नज़र आते हैं
आज कला का पुजारी
किंकर्तव्य-मूढ़ है
कृपा करो माँ--
राह दिखाओ
अथवा ----
हमारी वाणी में ही
ओज भर जाओ
इस विश्व को हम
दिशा-ग्यान कराएँ
भूले हुओं को
राह दिखाएँ

धर्म,जाति और
प्रान्त के नाम पर
लड़ने वालों को
सही राह दिखाएँ
तुमसे बस आज
यही वरदान पाएँ


लोकतंत्र

>> Monday, January 26, 2009

मैं लोकतंत्र हूँ--

भारत का संविधान

मेरा ही अनुगमन करता

है क्योंकि-- मैं जनता के लिए

जनता के द्वारा और जनता का तंत्र हूँ

फिर भी--

जन सामान्य यहाँ कुचला जाता है

तोहमत मुझपर लगती है

मैं जन-जन को अधिकार देता हूँ

राष्ट्र निर्माण का अधिकार

अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार

किन्तु देश की जनता

इससे उदासीन रहती है

मतदान के दिन चैन से सोती है

देश में हो रहा चुनाव

छट्टी का दिन बन जाता है

इसीलिए उसका

भरपूर आनन्द उठाता है

केवल कुछ लोग मतदान को जाते हैं

पर साम्प्रदायिकता से
ऊपर नहीं उठ पाते हैं

कभी धर्म के नाम पर

कभी जाति के नाम पर

और कभी लालच में

मतदान कर आते हैं

इसलिए धूर्त लोग इसका लाभ उठाते हैं

मनचाहा मतदान करवा

शासक बन जाते हैं

सीना छलनी कर जाते हैं

कभी-कभी सोचता हूँ

मुझे सफल बनाना

जन सामान्य का काम है

फिर -- मेरा नाम क्यों बदनाम है?

देश का हर नागरिक

अपनी ही चिन्ता में डूबा है

देश और देशभक्ति

सबके लिए अजूबा है

संविधान से लोग उम्मीद तो लगाते हैं

पर देश के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं

मेरे ५८वेँ जन्म दिवस पर

एक उपहार दे जाओ

इस वर्ष मुझे सच- मुच

जनतंत्र बना जाओ

जन-जन का तंत्र बना जाओ----

२३ जनवरी का दिन...

>> Friday, January 23, 2009


२३ जनवरी का दिन
एक अविस्मरणीय तिथि बन आता है
और
एक गौरवशाली इतिहास को
सम्मुख ले आता है
एक विलक्षण व्यक्तित्व
अचानक आँखों में प्रकट होजाता है
और
भारत की तरूणाई को
जीवन मूल्य सिखा जाता है।
एक अद्भुत और तेजस्वी बालक
इतिहास के पन्नों से निकल आता है
और
टूटे,बिखरे राष्ट को
संगठन सूत्र सुनाता है।
एक मरण माँगता युवा
आकाश से झाँकता है
और
पश्चिम की धुनों पर थिरकते
मोहान्ध युवकों को
कर्तव्य का पथ दिखलाता है
सौन्दर्य से लबालब
एक तेजस्वी युवा
आँखोंमें बस जाता है
और
प्रेम को
वासना की गलियों से निकाल
त्याग की सर्वोच्च राह बताता है
एक सशक्त और प्रभावी नेता
हमारी कमियों को दिखाता है
और
जाति-पाति की संकीर्णता से दूर
एकता का पाठ पढ़ाता है।

बच्चन जी की पुन्य तिथि पर

>> Saturday, January 17, 2009

प्रिय पाठकों
कल हालावादी कवि हरिवंश राय बच्चन जी की पुन्य तिथि है। उनकी लिखी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं। आप भी इनका रसास्वादन कीजिए-
भावुकता अंगूर लता से
खींच कल्पना की हाला
कवि साकी बनकर आया है,
भरकर कविता का प्याला।
कभी न कणभर खाली होगा
लाख पिए पीने वाला
पाठक गण हैं पीने वाले
पुस्तक मेरी मधुशाला
( मधुशाला )

इस पार प्रिये मधु है, तुम हो
उस पार ना जाने क्या होगा
जग में रस की नदियाँ बहतीं
रसना दो बूँदें पाती है
जीवन की झिलमिल सी झाँकी
नयनों के आगे आती है
स्वर तालमयी वीणा बजती
मिलती है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा लेजाती है
ऐसा सुनता उसपार प्रिये
ये साधन भी छिन जाएँगें
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा ?

और अँधेरे का दीपक से -

है अँधेरी रात पर, दीपक जलाना कब मना है ?
कल्पना के हाथ से, कमनीय मन्दिर जो बना था.
भावना के हाथ ने, जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से, था जिसे रूचिकर बनाया,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो तना था,
ढह गया वह तो जुटा कर, ईंट,पत्थर, कंकड़ों से,
एक अपनी शान्ति की , कुटिया बनाना कब मना है ?

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