जीवन नम्य मरण प्रणम्य
>> Tuesday, September 23, 2008
छिटकाईं जिनने चिनगारी
जो चढ़ गए पुण्य-वेदी पर
लिए बिना गरदन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल
प्रिय पाठकों !
यह सप्ताह भारत के इतिहास का एक विशिष्ट सप्ताह है। १०० वर्ष पहले इसी सप्ताह इस धरती पर दो महान विभूतियों ने जन्म लिया था। एक क्रान्तिदूत , शहीदे आज़म भगत सिंह और दूसरे राष्ट कवि रामधारी सिंह दिनकर। दोनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण से देश को दिशा निर्देशन किया। एक जीवन की कला के पुजारी रहे और दूसरे ने सोद्देश्य मृत्यु अपनाकर विश्व को हर्ष मिश्रित आश्चर्य में डाल दिया। भगत सिंह का मानना था कि तिल-तिल मरने से अच्छा है स्वयं सहर्ष सोद्देश्य मृत्यु का वरण करो और दिनकर का मानना था कि जियो तो ऐसा जीवन जियो कि जान डाल दो ज़िन्दगी में। एक ने बलिदान की तथा एक ने संघर्ष की राह दिखाई।

भगत सिंह एक विचारशील उत्साही युवा थे जिन्होने बहुत सोच समझकर असैम्बली में बम विस्फोट किया । वे जानते थे कि इसका परिणाम फाँसी ही होगा किन्तु ये भी समझते थे कि उनका बलिदान देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक दिशा देगा और अंग्रेजों का आत्मबल कम करेगा। मरा भगत सिंह ज़िन्दा भगत सिंह से अधिक खतरनाक साबित होगा और वही हुआ। उनके बलिदान के बाद क्रान्ति की लहर सी आगई। २४ वर्ष की आयु में उन्होने वो कर दिखाया जो सौ वर्षों में भी सम्भव नहीं था। उन्होने देश को स्वतंत्रता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता का महत्व बता दिया। परिणाम स्वरूप आज़ादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना हुई। ये और बात है कि यदि वे आज देश की दशा देखें तो दुखी हो जाएँ।
दूसरे महान व्यक्तित्व थे राष्ट कवि दिनकर। दिनकर जी जीने की कला के पुजारी थे।

२ वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो गया। बचपन अभावों में बीता। सारा जीवन रोटी के लिए संघर्ष किया और अवसाद के क्षणों में काव्य की आराधना की। सरकारी नौकरी करते हुए देश भक्ति और क्रान्ति से भरा काव्य लिखा और क्रान्ति का मंत्र फूँका। हुँकार, सामधेनी, रश्मि रथी, कुरूक्षेत्र ने देश के लोगों में आग जला दी। पद्मभूषण और ग्यानपीठ पुरुस्कार प्राप्त करने वाला कवि साधारण मानव की तरह विनम्र था। कभी-कभी आक्रोश में आजाता था। उन्होने समाज में संतों और महात्माओं की नहीं , वीरों की आवश्यकता बताते हुए लिखा-
रे रोक युधिष्ठिर को ना यहाँ, जाने दे उसको स्वर्ग धीर।
पर फिरा हमें गाँडीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से आज करें, वे प्रलय नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे, हर-हर बम-बम का महोच्चार
देश के शत्रुओं को भी उन्होने ललकारा और लिखा-
तुम हमारी चोटियों की बर्फ को यों मत कुरेदो।
दहकता लावा हृदय में है कि हम ज्वाला मुखी हैं।
वीररस के साथ-साथ उन्होने श्रृंगार रस का मधुर झरना भी बहाया। उर्वशी उनका अमर प्रेम काव्य है। जिसमें प्रेम की कोमल भावनाओं का बहुत सुन्दर चित्रण है।
दिनकर का काव्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उनकी कविता भारत के लोगों में नवीन उत्साह जगाती है। सारा जीवन कठिनाइयों का विषपान करने पर भी समाज को अमृत प्रदान किया। ऐसे युग पुरूष को मेरा शत-शत नमन।
हिन्दी दिवस
>> Saturday, September 13, 2008
हम सब हिन्दी दिवस तो मना रहे हैं
जरा सोचें किस बात पर इतरा रहें हैं ?
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा तो है
हिन्दी सरल-सरस भी है
वैग्यानिक और तर्क संगत भी है ।
फिर भी--
अपने ही देश में
अपने ही लोगों के द्वारा
उपेक्षित और त्यक्त है
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जरा सोचकर देखिए
हम में से कितने लोग
हिन्दी को अपनी मानते हैं ?
कितने लोग सही हिन्दी जानते हैं ?
अधिकतर तो--
विदेशी भाषा का ही
लोहा मानते है ।
अपनी भाषा को उन्नति
का मूल मानते हैं ?
कितने लोग हिन्दी को
पहचानते हैं ?
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भाषा तो कोई भी बुरी नहीं
किन्तु हम अपनी भाषा से
परहेज़ क्यों मानते हैं ?
अपने ही देश में
अपनी भाषा की इतनी
उपेक्षा क्यों हो रही है?
हमारी अस्मिता कहाँ सो रही है ?
व्यवसायिकता और लालच की
हद हो रही है ।
-------------------
इस देश में कोई
फ्रैन्च सीखता है
कोई जापानी
किन्तु हिन्दी भाषा
बिल्कुल अनजानी
विदेशी भाषाएँ सम्मान
पा रही हैं और
अपनी भाषा ठुकराई जारही है ।
मेरे भारत के सपूतों
ज़रा तो चेतो ।
अपनी भाषा की ओर से
यूँ आँखें ना मीचो ।
अँग्रेजी तुम्हारे ज़रूर काम
आएगी ।
किन्तु अपनी भाषा तो
ममता लुटाएगी ।
इसमें अक्षय कोष है
प्यार से उठाओ
इसकी ग्यान राशि से
जीवन महकाओ ।
आज यदि कुछ भावना है तो
राष्ट्र भाषा को अपनाओ ।
यादों की पिटारी
यादों की पिटारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी
कसक सी उठी दिल में
अपने से थी हारी
कैसे कहूँ किससे कहूँ
रात जो गुजारी
खोलकर जो बैठी रात
पहला मोती बचपन की
यादें लेकर आया
आँगन में सोई थी जो
गुड़ियाँ उठा लाया
माँ बाबा संगी साथी
सामने जो आए
जाग उठी लाखों यादें
ओठ मुसकुराए
ले जाओ बचपन तुम
बिटिया मेरी प्यारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी
दूजा मोती प्रीत का था
हाथ में जो आया
किरण जाल सपनों का
उसने था बिछाया
पीहू की पुकारों ने
शोर सा मचाया
प्रेम बीन बजने लगी
जादू सा था छाया
कानों में आ बोला कोई
आ जाओ प्यारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी
एक-एक मोती ने
यादें सौ जगाई
बिखरी सी मंजूषा
सँभाल मैं ना पाई
पागल दीवानी हो
उनके पीछे धाई
बिखरे मोती, बीती बातें
हाथ में ना आई
यादों की जमीन पर था
एक पल भी भारी
बिखर गए मोती सारे
आँख हुई भारी
अध्यापक दिवस पर…..
>> Thursday, September 4, 2008
जो स्वयं जल कर
रौशनी फैलाता है
किन्तु उत्तर में
समाज से क्या पाता है?
देश की पौध को सँवारता है
सुन्दर संस्कारों की खाद
और स्नेह की छाया बिछाता है
किन्तु अपेक्षित विकास ना पाकर
निराश हो जाता है…
पौध को सही दिशा में
विकसित करने के लिए
काट-छाँट (कठोर व्यवहार का भी)
सहारा लेता है
किन्तु अफसोस
बिना सोचे समझे समाज
आरोप लगाता है
क्रूर और अत्याचारी जैसे
विशेषणों से सज़ाता है
उसकी ताड़ना क्या
समाज के हित में नहीं?
फिर क्यों उसे
आरोपों -आक्षेपों में
घसीटा जाता है ?
समाज से उसका
क्या देने भर का नाता है ?
अध्यापक दिवस पर
एक परिवर्तन लाओ
अध्यापकों पर विश्वास रखो
उनको उचित सम्मान दे आओ।
अपना समर्पण,अपना विश्वास
दे आओ।
वह इतने से ही सन्तुष्ट हो जाएगा
यदि इतना भी ना कर सके तो
राष्ट्र का भविष्य
कौन बनाएगा ????
कौन बनाएगा ????
कौन बनाएगा ????
मुखौटे
>> Monday, September 1, 2008
जहाँ कहीं भी जाओगे
हर तरफ, हर किसी को
मुखौटे में ही पाओगे ।
यहाँ खुले आम मुखौटे बिकते हैं
और इन्हीं को पहन कर
सब कितने अच्छे लगते हैं
विश्वास नहीं होता --?
आओ मिलवाऊँ
ये तुम्हारा पुत्र है
नितान्त शरीफ,आग्याकारी
मातृ-पितृ भक्त
हो गये ना तृप्त ?
लो मैने इसका
मुखौटा उतार दिया
अरे भागते क्यों हो--
ये आँखें क्यों हैं लाल
क्या दिख गया इनमें
सुअर का बाल ?
आओ मिलो -
ये तुम्हारी पत्नी है
लगती है ना अपनी ?
प्यारी सी, भोली सी,
पतिव्रता नारी है पर-
मुखौटे के पीछे की छवि
भी कभी निहारी है ?
ये तुम्हारा मित्र है
परम प्रिय
गले लगाता है तो
दिल बाग-बाग
हो जाता है
क्या तुम्हे पता है
घर में सेंध वही लगाता है
ये तो दोस्ती का मुखौटा है
जो प्यार टपकाता है
और दोस्तों को भरमाता है
मुखौटे और भी हैं
जो हम सब
समय और आवश्यकता
के अनुरूप पहन लेते हैं
इनके बिना सूरत
बहुत कुरूप सी लगती है
मुखौटा तुमने भी पहना है
और मैने भी
सच तुम्हे भी पता है
और मुझे भी
फिर शिकायत व्यर्थ है
जो है और जो हो रहा है
उसके मात्र साक्षी बन जाओ
मुखौटे में छिपी घृणा, ईर्ष्या
को मत देखो
बस---
प्यारी मीठी- मीठी बातों का
लुत्फ उठाओ ।
बहुत भाव भीनी रचना है।अच्छी लगी।धन्यवाद।
February 18, 2009 12:09 PM
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना .अच्छी लगी.बधाई.
February 18, 2009 12:48 PM
सच में आ गया फागुन आपकी लिखी कविता पढ़ कर यही लगा सुंदर लिखा आपने
February 18, 2009 12:52 PM
सुन्दर रचना... होली की आमद का खाका खींच दिया आपने.
February 18, 2009 2:57 PM
सुन्दर रचना, मानो फागुन का साक्षात्कार हो गया आपकी कविता में!
February 18, 2009 6:03 PM
अरे वाह आप की कवित मै तो सच मुच फ़ागुन का मजा आ गया, बहुत सुंदर धन्यवाद
February 18, 2009 11:10 PM
अरे फागुन आ गया??
फागुन के आते ही पिया का इंतज़ार करती यह कविता सुंदर लगी.
February 19, 2009 1:33 AM
fagun par rangon ki bauchaare karne ko taiyaar hai ham bhi
sambhalanaa jaraa pakke rangon se
bagai paani shabdon ki holi blog par hi kheli jaayegi
February 19, 2009 10:57 AM
बहुत सुन्दर कविता बड़े दिनो बाद आया और पहली ही कविता अच्छी लगी।
February 22, 2009 1:39 AM
श्रृंगारपूर्ण ....आशावादी !
February 22, 2009 9:01 AM
रूमानी जज्बातों से परिपूर्ण एक सुन्दर रचना है जिसके लिए आपको निश्चित रूप से बधाई दी जानी चाहिए।
February 25, 2009 3:21 PM
हिन्दी की सेवा करने वाले और उसी की कृपा से विख्यात यशस्वी साहित्यकार को देखने और उनको सुनने को मैं बहुत उत्सुक थी। यह सुअवसर मुझे कल २८ दिसम्बर को हिन्द-युग्म के वार्षिक उत्सव में मिल गया। मैं बहुत उत्साहित थी। मेरा उत्साह कुछ ही देर में क्षीण हो गया। माननीय अतिथि बड़े गर्व से सभा में सिगार पी रहे थे। मैं हैरान होकर सोच रही थी-क्या ये वही देश है जहाँ एक एक कलाकार ने केवल इसलिए गाने से इन्कार कर दिया था कि राजा पान खा रहा था। कला के पारखी क्या इतना बदल गए हैं? अपनी संस्कृति कहाँ गई? और हम सब अतिथि देवो भव का भाव रख मौन देख रहे थे।
कार्यक्रम की समाप्ति पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तब मुझपर तो जैसे बिजली ही गिर गई। उन्होने कहा- आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए। हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं। आज एक ऐसी भाषा कली आवश्यकता है जिसे दक्षिण भारतीय भी समझ सकें। एक विदेशी भी सरलता से सीख सके। अपनी बात के समर्थन में उन्होने कबीर का सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा- गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े पढ़ा और उसका विदेश में रह रही महिला द्वारा भावार्थ बता कर मज़ाक उड़ाया। फिर कहा- ऐसी भाषा की अभ कोई आवश्यकता नहीं। इसे अजायबघर में रख दो। अपनी भाषा की सम्पन्नता, उसकी समृद्धि पर गर्व छोड़ उसे दरिद्र बना दो। अपाहिज़ बना दो। एक ऐसी भाषा बना दो जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं। उन्होने हिन्दी साहित्य को भी आज के समय में व्यर्थ बताया। कबीर, प्रेमचन्द आदि का आज कोई महत्व नहीं। मुख्य अतिथि बोलते जा रहे थे और मेरे कानो में भारतेन्दु की पंक्तियाँ - नुज भाषा उन्नत्ति अहै सब उन्नत्ति को मूल गूँज रही थी। यह आधुनिकता है या अन्धानुकरण? संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिन्दी तो स्वयं ही वैग्यानिक भाषा है, सरल है तथा अनेक भाषाओं को अपने भीतर समेटे है। फिर सरलता के नाम पर उसे इतना दरिद्र बना देने का विचार????????? और वह भी एक ऐसे साहित्यकार के मुख से जो हिन्दी भाषा के ही कारण सम्मानित हैं-
अगर ऐसी बात किसी विदेशी ने कही होती तो मैं उसको अपनी भाषा के अतुल्य कोष से परिचित कराती किन्तु इनका क्या करूँ? हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए ऐसे अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करने वाले शब्द शीषे के समान कानों में गिरे। हिन्दी की सेवा करने वालों को सम्मिलित रूप से इस तरह के भाषणों का विरोध करना चाहिए। अपनी भाषा की उन्नति होगी किन्तु उसे दरिद्र बनाकर नहीं। हिन्दी का प्राचीन साहित्य अजायबघर में रखने की बात करने वाला स्वयं ही अजायबघर में रखा जाना चाहिए। अपनी भाषा का अपनमान हमें कदापि स्वीकार नहीं। मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि ऐसे लोगों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए- जिनको ना निज भाषा और निज देश पर अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक के समान है।
जय भारत जय हिन्द
posted by शोभा at 11:55 PM on Dec 28, 2008