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आधुनिक नारी

>> Wednesday, October 31, 2007


आधुनिक नारी

बाहर से टिप-टाप

भीतर से थकी-हारी

।सभ्य, सुशिक्षित, सुकुमारी

फिर भी उपेक्षा की मारी

।समझती है जीवन में

बहुत कुछ पाया है

नहीं जानती-ये सब

छल है, माया है।

घर और बाहर

दोनों मेंजूझती रहती है।

अपनी वेदना मगर

किसी से नहीं कहती है

।संघर्षों के चक्रव्यूह

जाने कहाँ से चले आते हैं ?

विश्वासों के सम्बल

हर बार टूट जाते हैं

किन्तु उसकी जीवन शक्ति

फिर उसे जिला जाती है

।संघर्षों के चक्रव्यूह से

सुरक्षित आ जाती है ।

नारी का जीवन

कल भी वही था-

आज भी वही है ।

अंतर केवल बाहरी है ।

किन्तुचुनौतियाँ

हमेशा सेउसने स्वीकारी है

।आज भी वह

माँ-बेटी तथा

पत्नी का कर्तव्य निभा रही है ।

बदले में समाज से

क्या पा रही है ?

गिद्ध दृष्टि

आज भी उसेभेदती है ।

वासना आज भी रौंदती है ।

आज भी उसे कुचला जाता है ।

घर, समाज व परिवार मेंउसका

देने का नाता है ।

आज भी आखों में आँसू

और दिल में पीड़ा है ।

आज भी नारी-श्रद्धा और इड़ा है ।

अंतर केवल इतना है

कल वह घर की शोभा थी

आज वह दुनिया को महका रही है ।

किन्तु आधुनिकता के युग में

आज भी ठगी जा रही है ।

आज भी ठगी जा रही है

मुसाफ़िर

>> Thursday, October 25, 2007

राह पर चल तो रही हूँ


लक्ष्य की ना कुछ खबर है


आँख में सपने बहुत हैं


डगमगाती पर नज़र है


ज़िन्दगी के इस सफ़र में


कैसे-कैसे मोड़ आए


लक्ष्य का ना कुछ पता था


पाँव मेरे डगमगाए


राह की रंगीनियों ने


था बहुत मुझको पुकारा


उस मधुर आवाज़ से भी


कर लिया अक्सर किनारा


कंटकों की राह चुन ली


किन्तु फिर भी मैं ना हारा


हाँ कभी आवाज़ कोई


प्रेम की दी जब सुनाई


पाँव मेरे रूक गए थे


राह में थी डगमगाई


ज़िन्दगी के स्वर्ण के पल


राह से मैने उठाए


और दामन में समेटे


राह में जो काम आए


तक्त मीठे और खट्टे


राह में कितने मिले हैं


शूल के संग फूल भी तो


राह में अक्सर बिछें हैं


अब तो आ पहुँचा समापन


दिख रहा रौशन उजाला


पाँव अब क्यों काँपते हैं


हृदय में जब है उजाला


बावले अब धीर धर ले


सामने अब मीत प्यारा


मिल गया तुमको किनारा

>> Wednesday, October 24, 2007

अनुभूति में मेरी रचनाएँ

meri परछाईh

>> Thursday, October 18, 2007

कभी-कभी

>> Sunday, October 14, 2007


कभी-कभी सब कुछ
अच्छा क्यों लगने लगता है ?
बिना कारण कोई
सच्चा क्यों लगने लगता है ?
क्यों लगता है कि
कुछ मिल गया ?
अँधेरे में जैसे चिराग जल गया ?
हवाओं की छुवन
इतनी मधुर क्यों लगने लगती है ?
पक्षी की चहचहाहट
क्यों मन हरने लगती है ?
मन के आकाश में
रंग कहाँ से आ जाते हैं ?
किसी के अंदाज़
क्यों इतना भा जाते हैं ?
भीनी-भीनी खुशबू
कहाँ से आजाती है ?
और चुपके से
हर ओर बिखर जाती है ?
ना जाने कौन
कानों में चुपके से
कुछ कह जाता है ।
जिसे सुनकर-
मेरा रोम-रोम
मुसकुराता है ।

मुसाफ़िर

>> Thursday, October 4, 2007


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

राह में चल तो रहा हूँ
पर लक्ष्य हीन -
गंतव्य धूमिल है
एक भीड़ के पीछे
चलता जा रहा हूँ
कभी काँटा चुभ जाता है
गति में अवरोध आजाता है
जब फूल मुसक्कुराता है
हृदय प्रफुल्लित हो जाता है
ऐसे अनेकों मोड़ आए हैं
जहाँ मेरे कदम डगमगाए हैं ।
राह की रंगीनियों से
आँखें चुँधियाई हैं ।
पर कुछ पल ठहर कर
राह ही अपनाई है ।
हर एक मोड़ पर
दिल मेरा ललचाया है
यात्रा में बार-बार
अवरोध गया आया है
फिर भी उठा हूँ
आगे बढ़ा हूँ
सतत् गतिशील
संघर्षमय , विकासोन्मुख
क्योंक मैं जानता हूँ
मैं हमेशा विजित हुआ हूँ
और होता रहूँगा ।
कर्म में मेरी निष्ठा
असीमित और अपरिमित है
मै अज़र-अमर अविनाशी हूँ
अपराजित, दुर्जेय हूँ
एक अनन्त यात्रा का पथिक
एक मुसाफ़िर

मेरी कविता मेरी आवाज mai

>> Tuesday, October 2, 2007

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