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फिर उठी है टीस

>> Tuesday, April 29, 2008


फिर उठी है टीस कोई
चिर व्यथित मेरे हृदय में
उठ रहे हैं प्रश्न कितने
शून्य पर
- नीले- निलय में

फिर पराजित सी है शक्ति
फिर लुटा विश्वास है
चोट फिर दिल पर लगी है
फिर चुभी एक फाँस है

फिर शकुन अपमानिता है
दम्भी नर के सामने
द्रोपदी फिर से खड़ी है
कायरों के सामने

टूटा है विश्वास फिर से
राधा का इक श्याम से
जल रहे हैं नेत्र मेरे
नारी के अपमान से

नारी तू तो शक्ति है
भय हारिणी और पालिनी
मातृ रूपा स्वयं है तू
स्नेह छाँह प्रदायिनी

भूलकर अस्तित्व अपना
प्रेम के मोह- जाल में
माँगती उससे सहारा
जो स्वयं भ्रम- जाल
में

ओ शकुन! अब जान ले
दुष्यन्त की हर चाल को
द्रोपदी पहचान ले
नर दम्भ निर्मित जाल को

आत्मशक्ति को जगा और
फिर जगा विश्वास को
आंख का धुँधका मिटा ले
जीत ले संसार को

खोज मत अब तू सहारा
कायरों की भीड़ में
अब उड़ा दे मोह पंछी
जो छिपा है नीड़ में

कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे

विश्व को विश्वास से

माँ तुम……

>> Wednesday, April 16, 2008




माँ तुम……
बहुत याद आ रही हो
एक बात बताऊँ………
आजकल…..
तुम मुझमें समाती जा रही हो


आइने में अक्सर
तुम्हारा अक्स उभर आता है
और कानों में अतीत की
हर एक बात दोहराता है


तुम मुझमें हो या मैं तुममें
समझ नहीं पाती हूँ
पर स्वयं
को आज
तुम्हारे स्थान पर खड़ा पाती हूँ


तुम्हारी जिस-जिस बात पर
घन्टों हँसा करती थी
कभी नाराज़ होती थी

झगड़ा भी किया करती थी


वही सब……
अब स्वयं करने लगी हूँ
अन्तर केवल इतना है कि
तब वक्ता थी और आज
श्रोता बन गई हूँ


हर पल हमारी राह देखती
तुम्हारी आँखें
……..
आज मेरी आँखों मे बदल गई हैं
तुम्हारे दर्द को
आज समझ पाती हूँ
जब तुम्हारी ही तरह
स्वयं को उपेक्षित
सा पाती हूँ


मन करता है मेरा
फिर से अतीत को लौटाऊँ
तुम्हारे पास आकर
तुमको खूब लाड़ लड़ाऊँ
आज तुम बेटी
और मैं माँ बन जाऊँ


तुम्हारी हर पीड़ा, हर टीस पर
मरहम मैं बन जाउँ
तुम कितनी अच्छी हो
कितनी प्यारी हो
ये सारी दुनिया को बताऊँ


पर जानती हूँ माँ !
वो वक्त कभी नहीं आएगा
इतिहास स्वयं को
यूँ ही दोहराएगा


तुमने किसी को दोषी नहीं ठहराया
मैं भी नहीं ठहराऊँगी
किसी पर अधिकार नहीं जताया
मैं भी नहीं जताऊँगी
तभी तो तुम्हारे ऋण से

उऋण हो पाऊँगी



बैसाखी पर…..

>> Saturday, April 12, 2008


खेतों में पकी फसल ने
स्वर्णिम आभा बिखराई है
जिसे देख हर दिल ने
दुन्दुभि बजाई है

पाँवों में थिरकन और
ओठों पर गीत आया है
झूमते दिलों में मस्ती का
सागर लहराया है

बैसाखी के रंग, ढ़ोल और मृदंग
के बीच अचानक…….
कुछ यादें स्मृति पटल पर
दस्तक देने लगती हैं
ये छवि धुँधली हो जाती है
और …….
कानों में संगीत की जगह
चीख पुकारें गूँजने लगी

खुशियों के स्थान पर मातम
भागते चीखते लोगों का चीत्कार
खून से लथपथ बच्चों को उठाए
रोती बिलखती तड़पती ललनाएँ
और पौरूष बेबस निरूपाय …

बन्द द्वार पर खड़े
गोलियाँ बरसाते नर पशु
ओह !
ये दृष्य हृधयविदारक हैं
इनकी कल्पना
हृदय को चीर-चीर कर जाती है
नाचते गाते लोगों की छवि
फिर उभर आती है

इतिहास के ये पन्ने
कुछ कहने ख्वाइश में
खुलते ही जा रहे हैं
और भारत के लोगों को
आज़ादी की कीमत
समझा रहे हैं

हम साथ-साथ चले

>> Saturday, April 5, 2008


हम साथ-साथ चले
उमंग और उत्साह से भरे

एक ही डगर पर
आँखों में
………
एक ही स्वप्न सजाए
उत्साह से लबालब

एक ही संकल्प
और …………..
एक ही डगर
एक दूसरे पर पूर्ण विश्वास
बढ़ते रहे ले हाथों में हाथ

पर……
हालात की आँधी का
एक तीव्र वेग आया
और
….
उसके सबल प्रहार से
सब तितर-बितर हो गया

आशा का सम्बल
जाने कब टूटा

विश्वास की डोरी
कमजोर
सी पड़ गई
और……….

सदा साथ चलने वाले
अलग-अलग राह पर मुड़ गए


हैरान हैं राहें
बेचैन निगाहें

हृदय है तार-तार
देखती हैं
मुड़कर
व्याकुल बार- बार

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