मेरे अनुभव को अपनी प्रतिक्रिया से सजाएँ

>> Saturday, January 31, 2009


माँ!
तुम कब तक यूँ ही
कमलासना बनी
वीणा- वादन करती रहोगी?
कभी-कभी अपने
भक्तों की ओर
भी तो निहारो
देखो--
आज तुम्हारे भक्त
सर्वाधिक उपेक्षित
दीन-हीन जी रहे हैं
भोगों के पुजारी
महिमा-मंडित हैं
साहित्य संगीत
कला के पुजारी
रोटी-रोज़ी को
भटक रहे हैं
क्या अपराध है इनका-?
बस इतना ही- -
कि इन्होने
कला को पूजा है?
ऐश्वर्य को
ठोकर मार कर
कला की साधना
कर रहे हैं ?
कला के अभ्यास में
इन्होने
जीवन दे दिया
किन्तु लोगों का मात्र
मनोरंजन ही किया ?
माँ!
आज वाणी के पुजारी
मूक हो चुके हैं
और वाणी के जादूगर
वाचाल नज़र आते हैं
आज कला का पुजारी
किंकर्तव्य-मूढ़ है
कृपा करो माँ--
राह दिखाओ
अथवा ----
हमारी वाणी में ही
ओज भर जाओ
इस विश्व को हम
दिशा-ग्यान कराएँ
भूले हुओं को
राह दिखाएँ

धर्म,जाति और
प्रान्त के नाम पर
लड़ने वालों को
सही राह दिखाएँ
तुमसे बस आज
यही वरदान पाएँ


लोकतंत्र

>> Monday, January 26, 2009

मैं लोकतंत्र हूँ--

भारत का संविधान

मेरा ही अनुगमन करता

है क्योंकि-- मैं जनता के लिए

जनता के द्वारा और जनता का तंत्र हूँ

फिर भी--

जन सामान्य यहाँ कुचला जाता है

तोहमत मुझपर लगती है

मैं जन-जन को अधिकार देता हूँ

राष्ट्र निर्माण का अधिकार

अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार

किन्तु देश की जनता

इससे उदासीन रहती है

मतदान के दिन चैन से सोती है

देश में हो रहा चुनाव

छट्टी का दिन बन जाता है

इसीलिए उसका

भरपूर आनन्द उठाता है

केवल कुछ लोग मतदान को जाते हैं

पर साम्प्रदायिकता से
ऊपर नहीं उठ पाते हैं

कभी धर्म के नाम पर

कभी जाति के नाम पर

और कभी लालच में

मतदान कर आते हैं

इसलिए धूर्त लोग इसका लाभ उठाते हैं

मनचाहा मतदान करवा

शासक बन जाते हैं

सीना छलनी कर जाते हैं

कभी-कभी सोचता हूँ

मुझे सफल बनाना

जन सामान्य का काम है

फिर -- मेरा नाम क्यों बदनाम है?

देश का हर नागरिक

अपनी ही चिन्ता में डूबा है

देश और देशभक्ति

सबके लिए अजूबा है

संविधान से लोग उम्मीद तो लगाते हैं

पर देश के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं

मेरे ५८वेँ जन्म दिवस पर

एक उपहार दे जाओ

इस वर्ष मुझे सच- मुच

जनतंत्र बना जाओ

जन-जन का तंत्र बना जाओ----

२३ जनवरी का दिन...

>> Friday, January 23, 2009


२३ जनवरी का दिन
एक अविस्मरणीय तिथि बन आता है
और
एक गौरवशाली इतिहास को
सम्मुख ले आता है
एक विलक्षण व्यक्तित्व
अचानक आँखों में प्रकट होजाता है
और
भारत की तरूणाई को
जीवन मूल्य सिखा जाता है।
एक अद्भुत और तेजस्वी बालक
इतिहास के पन्नों से निकल आता है
और
टूटे,बिखरे राष्ट को
संगठन सूत्र सुनाता है।
एक मरण माँगता युवा
आकाश से झाँकता है
और
पश्चिम की धुनों पर थिरकते
मोहान्ध युवकों को
कर्तव्य का पथ दिखलाता है
सौन्दर्य से लबालब
एक तेजस्वी युवा
आँखोंमें बस जाता है
और
प्रेम को
वासना की गलियों से निकाल
त्याग की सर्वोच्च राह बताता है
एक सशक्त और प्रभावी नेता
हमारी कमियों को दिखाता है
और
जाति-पाति की संकीर्णता से दूर
एकता का पाठ पढ़ाता है।

बच्चन जी की पुन्य तिथि पर

>> Saturday, January 17, 2009

प्रिय पाठकों
कल हालावादी कवि हरिवंश राय बच्चन जी की पुन्य तिथि है। उनकी लिखी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं। आप भी इनका रसास्वादन कीजिए-
भावुकता अंगूर लता से
खींच कल्पना की हाला
कवि साकी बनकर आया है,
भरकर कविता का प्याला।
कभी न कणभर खाली होगा
लाख पिए पीने वाला
पाठक गण हैं पीने वाले
पुस्तक मेरी मधुशाला
( मधुशाला )

इस पार प्रिये मधु है, तुम हो
उस पार ना जाने क्या होगा
जग में रस की नदियाँ बहतीं
रसना दो बूँदें पाती है
जीवन की झिलमिल सी झाँकी
नयनों के आगे आती है
स्वर तालमयी वीणा बजती
मिलती है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा लेजाती है
ऐसा सुनता उसपार प्रिये
ये साधन भी छिन जाएँगें
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा ?

और अँधेरे का दीपक से -

है अँधेरी रात पर, दीपक जलाना कब मना है ?
कल्पना के हाथ से, कमनीय मन्दिर जो बना था.
भावना के हाथ ने, जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से, था जिसे रूचिकर बनाया,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो तना था,
ढह गया वह तो जुटा कर, ईंट,पत्थर, कंकड़ों से,
एक अपनी शान्ति की , कुटिया बनाना कब मना है ?

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