शर्मिन्दा हुई हिन्दी
>> Monday, December 29, 2008
हिन्दी की सेवा करने वाले और उसी की कृपा से विख्यात यशस्वी साहित्यकार को देखने और उनको सुनने को मैं बहुत उत्सुक थी। यह सुअवसर मुझे कल २८ दिसम्बर को हिन्द-युग्म के वार्षिक उत्सव में मिल गया। मैं बहुत उत्साहित थी। मेरा उत्साह कुछ ही देर में क्षीण हो गया। माननीय अतिथि बड़े गर्व से सभा में सिगार पी रहे थे। मैं हैरान होकर सोच रही थी-क्या ये वही देश है जहाँ एक एक कलाकार ने केवल इसलिए गाने से इन्कार कर दिया था कि राजा पान खा रहा था। कला के पारखी क्या इतना बदल गए हैं? अपनी संस्कृति कहाँ गई? और हम सब अतिथि देवो भव का भाव रख मौन देख रहे थे।
कार्यक्रम की समाप्ति पर जब उन्होने बोलना शुरू किया तब मुझपर तो जैसे बिजली ही गिर गई। उन्होने कहा- आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए। हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं। आज एक ऐसी भाषा कली आवश्यकता है जिसे दक्षिण भारतीय भी समझ सकें। एक विदेशी भी सरलता से सीख सके। अपनी बात के समर्थन में उन्होने कबीर का सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा- गुरू गोबिन्द दोऊ खड़े पढ़ा और उसका विदेश में रह रही महिला द्वारा भावार्थ बता कर मज़ाक उड़ाया। फिर कहा- ऐसी भाषा की अभ कोई आवश्यकता नहीं। इसे अजायबघर में रख दो। अपनी भाषा की सम्पन्नता, उसकी समृद्धि पर गर्व छोड़ उसे दरिद्र बना दो। अपाहिज़ बना दो। एक ऐसी भाषा बना दो जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं। उन्होने हिन्दी साहित्य को भी आज के समय में व्यर्थ बताया। कबीर, प्रेमचन्द आदि का आज कोई महत्व नहीं। मुख्य अतिथि बोलते जा रहे थे और मेरे कानो में भारतेन्दु की पंक्तियाँ - नुज भाषा उन्नत्ति अहै सब उन्नत्ति को मूल गूँज रही थी। यह आधुनिकता है या अन्धानुकरण? संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिन्दी तो स्वयं ही वैग्यानिक भाषा है, सरल है तथा अनेक भाषाओं को अपने भीतर समेटे है। फिर सरलता के नाम पर उसे इतना दरिद्र बना देने का विचार????????? और वह भी एक ऐसे साहित्यकार के मुख से जो हिन्दी भाषा के ही कारण सम्मानित हैं-
अगर ऐसी बात किसी विदेशी ने कही होती तो मैं उसको अपनी भाषा के अतुल्य कोष से परिचित कराती किन्तु इनका क्या करूँ? हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिए ऐसे अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करने वाले शब्द शीषे के समान कानों में गिरे। हिन्दी की सेवा करने वालों को सम्मिलित रूप से इस तरह के भाषणों का विरोध करना चाहिए। अपनी भाषा की उन्नति होगी किन्तु उसे दरिद्र बनाकर नहीं। हिन्दी का प्राचीन साहित्य अजायबघर में रखने की बात करने वाला स्वयं ही अजायबघर में रखा जाना चाहिए। अपनी भाषा का अपनमान हमें कदापि स्वीकार नहीं। मैं सारे रास्ते यही सोचती रही कि ऐसे लोगों का सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए- जिनको ना निज भाषा और निज देश पर अभिमान है, वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक के समान है।
जय भारत जय हिन्द
45 comments:
शोभा जी....दिल की बात कह कर अच्छा ही किया ......और सच भी यही है .....
Shoba ji,
Aapki nirbhikta ki taariff kiye bina nahi raha ja sakta...dil ki baat saafgoyee se keh dena her ek ke bus mein nahi hota.. log apni chavi ko jyada niharte rehate hein..
English mein tippani dene ke liye kshama... abhi bahar hoon or hindi tool uplabdh nahi hae
दिखावे के राष्ट्रप्रेम पर काफी पहले एक व्यंग्य लिखा था जो ‘हंस’ और अन्यत्र छपा था। शीघ्र ही अपने ब्लाॅग पर पोस्ट करुंगा। आप भी पढिए:-
राष्ट्रप्रेम
कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है, मगर हम आजकल के राष्ट्रप्रेमियों को देखें, तो लगता है कि राष्ट्रप्रेम कहीं ज्यादा अंधा होता है, और कथित राष्ट्रप्रेमियों को प्रेम करने वाले कितने अंधे हो सकते है, इसका अंदाजा तो कोई अंधा भी नहीं लगा सकता। अगर आपने देश की जेब, कूटनीतिज्ञों के कान और देशवासियों के गले काटने हों तो ‘राष्ट्रपे्रम‘ एक अनिवार्य शर्त है। राष्ट्रप्रेम ऐसा चुंगीनाका है, जहां सत्ता की ओर सरकने वाली हर गाड़ी को मजबूरन चुंगी अता करनी पड़ती है। राष्ट्रप्रेम ऐसी दुकान है, जहां प्रेम की चाशनी चढ़ा कर ज़हर भी अच्छे दामों पर बेचा जाता है। ‘राष्ट्रपे्रेम‘ एक ऐसी सात्विक जिल्द है, जिसके पीछे छुपकर नंगी कहानियां भी ससम्मान पढ़ी जा सकती हैैं। राष्ट्रप्रेम ऐसी चाबी है, जिसकी मदद से शोहरत और दौलत का कोई भी खज़ाना ‘सिमसिम‘ की तरह खोला जा सकता है। राष्ट्रप्रेम अभिनय की वह चरम अवस्था है जहां बी और सी ग्रेड के कलाकारों का कोई काम नहीं है। राष्ट्रप्रेम रूपी मुर्गी को जो धैर्यपूर्वक दाना चुगाता है, वह रोज़ाना एक स्वर्ण-अण्डा पा सकता है। जो अधीर होकर इसका पेट काटता है, उसके हाथ से अण्डे तो जाते ही हैं, मुर्गी भी मारी जाती है।
अपने-अपने ढंग से सभी लोग राष्ट्र को प्रेम करते हैं। जनता कुछ इस अंदाज़ में प्रेम करती है कि ‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां‘। अर्थात् जल में रह कर मगरमच्छ से वैर क्या करना। जब रहना ही यहीं है, तो बिगाड़ कर क्यों रहें? पटाकर क्यों न रखें। अर्थात् जिस अंदाज़ में वह पुलिस, डाकू, माफिया, आयकर अधिकारी और आसमानी सत्ता से प्रेम करती है, कुछ-कुछ उसी तरह का ‘ट्रीटमेन्ट‘ राष्ट्र को भी देती है। आज से कुछ पंद्रह-बीस साल पहले तक लोग ‘राष्ट्रप्रेम‘ में इतने भीगे रहते थे कि सिनेमाघरों में फिल्म खत्म होते ही राष्ट्रगान के सम्मान में उठ खड़े होते थे। कुछ डटे रहते तो बाकी हौले-हौले, खामोश कदमों से हाॅल से बाहर सरक लेते थे। इस तरह भीड़ छंट जाती और रास्ता साफ हो जाता। तब बाकी पंद्रह-बीस लोग भी बाहर आ जाते थे। बाहर आकर वे दो मिनट रूकते, अपनी सांसों को व्यवस्थित करते और गंतव्य की ओर चल देते, जहां एक कई गुना बड़ा राष्ट्र उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता था। इस राष्ट्र में प्रेम की मात्रा इतनी अधिक होती थी कि लोग काली मिर्च की जगह पपीते के बीज और वनस्पति तेल की बजाय मोबिल आॅयल में तले समोसे श्रद्धापूर्वक गटक जाते थे। कहा भी है कि प्रेम से अगर कोई जहरीली शराब भी पिलाए, तो भी गनीमत होती है। यही क्या कम है कि आपके पैसे के बदले में उसने आपको कुछ दिया। न देता, तो आप क्या कर लेते?
बाज लोग मनोज कुमार की तरह फिल्में बनाकर भी राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्ति देते हैं। ‘पूरब और पश्चिम‘ में सायरा बानो, ‘रोटी, कपड़ा और मकान‘ में ज़ीनत अमान और ‘क्रांति‘ में हेमा मालिनी की मार्फत मनोज कुमार दर्शकों को संदेश देते हैं कि राष्ट्रप्रेम में अगर कपड़े उतार कर बरसात में भीगना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। राष्ट्रप्रेम में अगर हम थोड़ा-सा जुकाम भी नहीं अफोर्ड कर सकते, तो लानत है हम पर। देशप्रेम की उक्त पद्धति से प्रभावित दर्शकों की आँंखें भीग जाती है और मुंह से लार टपकने लगती है।
राष्ट्रप्रेम में डूब कर लोग क्या नहीं करते। नेता दंगे करवाते हैं। पब्लिक दुकानें लूटती है। खेलप्रेमी पिच खोद देते हैं। लड़कियां ‘प्लेब्वाॅय‘ टाइप पत्रिकाओं का सहारा बनती हैं। संगीतकार धुनें चुरा लेते हैं। विद्यार्थी बसंे जला देते हैं। पुलिस व सेना बलात्कार करती हैं। प्रोफेसर ट्यूशन पढ़ाते हैं। दूरदर्शन नंगे कार्यक्रम दिखाता है। मां-बाप बच्चों को ठोंक-पीटकर अच्छा नागरिक बनाते हंै। बच्चे मां-बाप को गालियां देकर क्रांति की नींव रखते हैं। साधु-सन्यासी तस्करी, ठगी और बलात्कार करते है। देशद्रोही गद्दारी करते हैं।
बेरोजगारी युवक-युवतियों से मेरी अपील है कि वे आलतू-फालतू चक्करों में न पड़ें। वे राष्ट्रप्रेम करें। इससे बढ़िया धंधा कोई नहीं। अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्रप्रेम किस विधि से करें, ताकि यह दूसरों को भी राष्ट्रप्रेम लगे और आप इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सकें। बहुत आसान है। राष्ट्र की कमियों को भूलकर भी कमियां न कहें, बल्कि खूबियां कहें। अंधविश्वासों और कुप्रथाओं को सांस्कृतिक धरोहर बताएं। राष्ट्र के शरीर पर उगे फोड़े-फुंसियों को उपलब्धियां बताएं। आनुवंशिक और असाध्य रोगों को अतीत का गौैरव कहें। अपनी सभ्यता और संस्कृति में भूलकर भी कमियां न निकालें। भले ही विदेशी वस्तुओं और तौर-तरीकों पर मन ही मन मरे जाते हों, पर सार्वजनिक रूप से इन्हें गालियां दें। बच्चों को पढ़ाएं तो अंग्रेजी स्कूलों में, मगर उन बच्चों के नाम संस्कृत में रखें। स्त्रियों का भरपूर शोषण करें, मगर उन्हें ‘देवी‘ कह-कह कर।
दलितों-शोषितों-पिछड़ों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करें, मगर ऊपर-ऊपर मानवता के गीत गाएं। तबीयत से काले धंधे करें, मगर लोगों को दिखा-दिखाकर, सुना-सुना कर राष्ट्र, धर्म और भगवान के नाम पर दान करते रहें। रात में अगर दस नाबालिग लड़कियों के साथ सोएं, तो सुबह बीस विधवाओं की शादी करवा दें। आॅफिस भले ही आठ घंटे लेट जाएं, मगर मंदिर में मत्था टेकने सुबह चार बजे ही जा धमकें।
उक्त सभी उपाय आज़मा कर देखें। फिर देखता हूं कि कौन माई का लाल आपको राष्ट्रप्रेमी नहीं मानता। कोई क्यों नहीं मानेगा! सभी तो राष्ट्रप्रेमी हंै।
बिल्कुल ठीक कहा आपने... यही सब तो हो रहा है
बहुत ही आश्चर्य हो रहा है..सच मने तो विश्वास हो नहीं कर पार रही हूँ.
दुःख भी है की हिन्दी भाषा के कारण ख्याति प्राप्त व्यक्ति कैसे ऐसी बातें कह सकता है?
आप ने बेबाक यह बात कही और उनका व्यक्तित्व हमारी नज़रों के सामने भी आ गया .
आभार
ये तो शर्मनाक है..
इस सत्य को अनावृत करने और सबके सामने लाने हेतु बहुत बहुत आभार. चिंता न करें.......साहित्य को अजायबघर पहुँचाने वाले ऐसे तथाकथित साहित्यकारों को अजायबघर में भी स्थान नही मिलेगा.स्वस्तुती करते करते ही स्वर्ग सिधारेंगे ये.
यह जरूर उन काला चश्माधारी ने कही होगी.
घबराएं नहीं, हिन्दी को समय के साथ चलाने वाले युवाओं की कमी नहीं है, उन्हे इन बुजूर्ग की सलाह की आवश्यकता भी नहीं.
हिन्दी के पराभव के लिए ऐसे ही तथाकथित ठेकेदार तो जिम्मेदार हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी माँ को नोच नोच कर खाया है और अब जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर अंग्रेजियत का जमा लगा कर हिंद की हिन्दी को आइना देखा रहे हैं.
स्याही की खूबसूरती को श्याह करने वाले इस ऐसे दुर्योधन को हिन्दी में जगह ना दें का अनुरोध.
आपके दर्द में बराबर का शरीक.
रजनीश के झा.
Ise kahte hain marketing!!!!
हिन्दी के ऐसे अपमान से मैं भी आहत हूं। भाषा के विकास के लिये स्वरूप परिवर्तन की बात तो समझ में आती है लेकिन इस तरह के वक्तव्य की नहीं ।
इस देश सबको अपनी बात कहने का अधिकार है... एक पक्ष शोभा जी आपका है और दूसरा राजेंद्र जी का .. इस देश में दोनों विचारों के पक्षधर मिल जाएंगे.....
शोभा जी,
कल का कार्य क्रम औपचारिक तौर पर सफल बता कर हम भी घर लौट आए थे ....
पर मन में वही सब कुछ चल रहा था ..जो आपने उगला और हम से भी उगलवा दिया..
इसके अलावा एक चीज और बेहद अखरी............डॉक्टर दरवेश भारती जिन को मैंने कल पहली बार देखा और उनके दरवेश जैसे ही स्वभाव का कायल भी हो गया...
पूरे कार्य क्रम में एक बिल्कुल गुमनाम आदमी की तरह केवल दर्शक बने बैठे रहे ...किसलिए बांटी गयी उनकी किताबें ...??? क्या मंच पर बैठा कोई भी व्यक्ति ये नहीं जानता था ..के जिस छंद शास्त्री की किताबें बांटी जा रही हैं वो भी वहीं मौजूद है ....सब जानते थे ..पर उनसे दो शब्द कहलवाना तो दूर ..उनका परिचय तक करवाना गैर जरूरी बात मान ली गयी...
हालांकि उन्हें देख कर ही पता चल गया की उनकी तबियत ऐसे किसी सम्मान की तलबगार नहीं है.....
वो हमारे मुख्य अतिथि जैसे तो बिल्कुल भी नहीं हैं ना ........................
और ना अन्य लोगों जैसे..फ़कीर जैसे लगे ....जो वाकई हर हाल में साहित्य की सेवा कर रहा है...
पर मुझे ये नज़र अंदाजी काबिले शिकवा लगी .....सो कह दिया.....
कल पहली बार एहसास हुआ के भडास निकालनी कितनी ज़रूरी है...
आपने दिल हल्का करवा दिया ...आपका शुक्रिया...वरना ये बेचैनी सिर्फ़ और सिर्फ़ अशआर में ढलकर रह जानी थी........
शोभा जी कल की चिट्ठा चर्चा के लिए कृपया कुछ अंश इस लेख के प्रदान करें .
Bhai log, is baat ko dil pe nahin lene ka hai...itna bhi to ho sakta hai ki ye vyang ho?
संसार की सर्व श्रेष्ट भाषा की ऐसी प्रशंसा? हिंदी कब संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा हो गयी... और राजेंद्र यादव ने गलत क्या कहा... पुराने साहित्य और नये समय के अंतर्विरोध को समझाने की कोशिश की। आपलोगों को मजे और वाहवाही के लिए नहीं, बल्कि समाज का दर्पण बनने के लिए साहित्य रचना चाहिए। शुभकामनाएं।
आपको हैरानी नहीं होनी चाहिए...क्योंकि जब कोई भी साहित्यकार सठिया जाता है तो वो साहित्य से भी बड़ा हो जाता है.
आधुनिक तकनीक का प्रयोग करने वाले साहित्यकारों को अपने विचारों में भी आधुनिकता लानी चाहिए।
मै इस बात से पुरी तरह सहमत हूँ और शोभा मै ये भी मानती हूँ की "ब्लॉग " केवल साहित्य रचने के लिये नहीं हैं . ब्लॉग माध्यम हैं अभिव्यक्ति का और बोल चाल की भाषा का . ब्लॉग लेखन को " हिन्दी सुधारो आन्दोलन " क्यों बनाया जाये ,
साहित्यकार के पास बहुत से माध्यम हैं अपनी बात कहने के प्रिंट मीडिया मे उनका प्रयोग करे .
अगर हिन्दी का प्रचार करना हैं तो ठीक हैं लोग हिन्दी मे लिखने की कोशिश कर ही रहे हैं .
आप भी जानती हैं की आप अपने इस क्रोध को प्रिंट मीडिया मे नहीं छपा सकती क्युकी शायद वहाँ आप अभी साहित्यकार नहीं बनी हैं इस लिये आप ब्लॉग के माध्यम से लिख रही हैं
उसी तरह अलग अलग भाषा और व्यवसाय के लोग हिन्दी मे अपनी अपनी बात कह रहे हैं ब्लॉग पर . लेकिन उस हिन्ढी मे जिसे आसानी से समझा जा सकता हैं .
और उनमे से बहुतो की रूचि हिन्दी साहित्य , हिन्दी साहित्यकारों मे बिल्कुल नहीं हैं सो जरुरी नहीं हैं की वो आप से हिन्दी साहित्य पर बात करना चाहे .
हिन्दी साहित्य , हिन्दी मे एक विषय मात्र हैं
और हिन्दी भाषा हैं जिसके बहुत से रूप हैं
हिन्दी , भाषा हैं हिन्दुस्तान की और हिन्दी साहित्य केवल और केवल हिन्दी पर रिसर्च करने वालो के लिये रुचिकर हो सकता हैं .
आप की बात पढ कर मै हेरान हो गया,यही वो लोग है जो जवान होते ही अपने मां बाप को घर से निकाल देते है,जो अपनी मात्रभाषा की इज्जत नही कर सकता उसे तो मै देखना भी पसंद नही करुगां , क्या पुरी दुनिया मै सिर्फ़ अग्रेजी ही बची है तरक्की दिलाने के लिये??? कोन कहता है यह, जरा मुझ से बात करे, ओर जो कहता है वो कुयें के मेडक से ज्यादा कुछ नही जिस ने सिर्फ़ ओर सिर्फ़ गुलामी ही झेली है, ओर इस गुलामी के चोले को उतार फ़ेकंने से डरता है, थुं है उस पर जो हिन्दी को बकवास बताता है.
धन्यवाद
आत्मीय शोभा जी.
वंदे मातरम.
हिन्दयुग्म के कार्यक्रम में हिन्दी द्रोही राजेंद्र यादव के विचार जानकर दु:ख हुआ किंतु विस्मय नहीं हुआ. भारत की गरीबी. भुखमरी, अशिक्षा, पिछडापन आदि बेचनेवालों को यहाँ की उन्नति, विकास, समृद्धि आदि नहीं दीखता. काले चश्माधारी तथाकथित साहित्यकार हिन्दी की छीछालेदर करने की कोशिश में पहले भी ख़ुद की छीछालेदर करा चुके हैं. मुझे विस्मय यह है की उन्हें आमंत्रित करनेवाले क्या उनका पूर्व इतिहास नहीं जानते?
हिन्दी कुछ लोगों के पेट भरने का जरिया तो है लेकिन उनके मन में हिन्दी की कोई जगह नहीं है. ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति ने अपने सम्पादन काल में कादम्बिनी के मुखपृष्ठ पर भारतीय संस्कृति में मान के प्रतीक पान के पत्ते पर जिसे पवित्र मानकर हर पूजन में देवता को अर्पित किया जाता है, जूता रखा चित्र छापा था. एक चित्रकार हिंदू देवी-देवताओं के निर्वासन चित्र बनाता है जबकि अपने मां व् मजहब के चरित्रों को वस्त्र पहिने चित्रित करता है. रुग्ण मानसिकता के इन लोगों को सर पर बैठालने के लिए तो हम ही दोषी हैं. क्या हमें राष्ट्र, राष्ट्र भाषा, राष्ट्रीय संस्कृति और अपनी सभ्यता पर गर्व करनेवाले, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझनेवाले लोग नहीं मिलते जो हम वैचारिक दोगलापन दिखानेवालों को ख़ुद को कराने का मौका देते हैं?
विश्व-भाषा हिन्दी असंख्य लोगों की श्रद्धा का केन्द्र है. मुट्ठीभर हिन्दीद्रोहियों से हिन्दी का कुछ नहीं बिगड़ सकता पर हमें उनका बहिष्कार कर सीख देना चाहिए, न की उन्हें महत्त्व देकर बार-बार अपनी मात्र भाषा के अपमान का मौका देना चाहिए. अस्तु..
आपकी प्रतिक्रिया सही, सटीक और संतुलित है. जिससे तरह किसी ईमारत की नींव केवल इसलिए नहीं खोदी जा सकती की वह पुरानी है उसी तरह हिन्दी या अन्य किसी भाषा का अतीत पुराना होने के नाते भुलाने की बात नहीं कही जा सकती. कल और कल अर्थात विगत और आगत के बीच संपर्क सेतु आज होता है. न तो गत के बिना आज हो सकता है, न आज के बिना कल. हम गत पर भुला दें तो आगत हमें भुला देगा. सत्य यह है की किसी भी कल का सब कुछ याद नही रखा जाता.. याद केवल वह रखा जाता है जो सारवान होता है. 'सार-सार को गहि रहे थोथा देय उडाय' की उक्ति के अनुसार विगत का वही शेष है जो सार्थक है. इन अतिथि जी को कष्ट यह है की उनके सदियों पहले के कबीर, सूर, तुलसी. ख्सुरो, मीरां, जायसी, भारतेंदु, जैसे आज भी पाठकों के पूज्य हैं इनके लिखे को वह जगह नहीं मिल रही. इसलिए पुरानों को फेंक कर इन्हें लाद लिया जाए. खैर 'मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है?' वाल्मीकि से लेकर अब तक सार्थक लिखनेवालों को ही समय बचा रहने देगा और रुग्ण मानसिकता की रचनाएँ भले ही कुछ सनसनी फैला लें समय की एक करवट में नष्ट हो जायेंगी.
हम हिन्दी की जड़ों में बदलाव का पानी इस तरह दें कि न तो जड़ें सड जाएँ न सूख पायें.
bakaul rachnaa ji.........
agar shobha ji PRINT MEDIA mein saahitykaar naheen hain to achhaa hai...
honaa bhi naheen chahiye kisi ko esi jagah par....jahaan pe jaaker dimaag is kadar kharaab ho jaate hon....
haan..!! DHUMRAPAAN ka shauk zaroor poora kar sakte hain sare mahfil jahaan par bachche aur aurten bhi hon......
shaayad bahut zyaada zurmana naheen hai...is par .......rajendra ji aaraam se bhar sakte hain......
achhaa kamaa rakhaa hoga hindi mein.....???
sab samajh ka pher hai. avinashji ne achchhi bat kahi hai.
ye sab baten gahrai se samajhane ki hai.
isame bhala bura manane jaisi koi baat nahin hai.
rajendra yadav ji bahut samajh rakhane wale vykti hai.
devi,devata aur bhagwanon ko yahan kyo la rahe ho mere bhai.
shanti rakho mere bhai logon.
निज भाषा पर अभिमान ठीक है लेकिन याद रखना चाहिए कि भाषा बहता नीर भी है इसमें ठहराव ठीक नहीं। कया गलत है अगर भाषा को सरल बनाने और उसे दूसरी भाषाओं का सेतु बनाने की कोशिश की जाए। भाषा को लेकर भावुकता ठीक नहीं। कोई विचारों में आधुनिकता लाने की बात करे तो उसका सवागत करना चाहिए। इसमें गलत कुछ भी नहीं है।
शोभा जी,
सबसे पहले तो आपको सच बोलने के लिए मेरी ओर से बहुत-बहुत बधाई. मनु ने डॉक्टर दरवेश भारती के बारे में लिखा, जानकर बहुत अच्छा लगा. मगर अफ़सोस की बात है कि विनय कोने में अकेला बैठा था और अहंकार सभागार में सिगार का धुंआ उडाकर अपने ही पूर्वजों को अजायबघर में डाल रहा था. संजीव सलिल जी का नुक्ता ध्यान देने योग्य है. मैं इतना ही जोडूंगा कि चापलूसों की बहुतायत के बीच आप जैसी बेबाकी की देश को बहुत सख्त ज़रूरत है.
धन्यवाद!
राजेन्द्र यादव का असली रूप अभी भी सामने आना बाकी है। इनके लिये गाली गलौज वाली भाषा में सनी मार्क्सवादी जूठन ही अभीष्ट भाषा है।
इनका वहिष्कार ही सही रास्ता है।
बहुत दुःख हुआ पढ़ कर...
Regards
शोभाजी
आपकी भावनाएं पढकर अच्छा लगा. एक ही बात कहना चाहूंगा कि राजेंद्र यादव अपने इन विचारों के लिए पहले से ही कुख्यात हैं. इसके बावजूद हिन्द युग्म ने उन्हें अपने कार्यक्रम में आमंत्रित किया तो यह सब सुनने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए. यदि हमें यह उचित नहीं लगता है तो राजेंद्र यादव जैसे लोगों का संपूर्ण बहिष्कार करना होगा.
इनकी दुकानों पे टेक्स लगवा दिया जाए तो उम्दा होगा
शोभा जी बिल्ल्कुल सही बात कह रही हैं. आज समस्या यही है कि हिन्दी वाले जड़ से कटना चाहते हैं. इन स्वयम्भू ठेकेदारों को याद रखना चाहिए कि नक़ल किसी भी हाल में नक़ल ही होती है. चाहे वह सर्जन में हो या आचरण में या फ़िर संस्कृति में. अपनी मजबूत जड़ों के सहारे खडा रह कर दिखाओ इसी में बहादुरी है.
बेबाकी से मुद्दा उठाने के लिए बधाई.
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!
बहुत बढ़िया पोस्ट पढ़कर अच्छी लगी. धन्यवाद. नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये और बधाइयाँ स्वीकार करे . आपके परिवार में सुख सम्रद्धि आये और आपका जीवन वैभवपूर्ण रहे . मंगल्कामानाओ के साथ .
महेंद्र मिश्रा,जबलपुर.
बहुत बढ़िया पोस्ट पढ़कर अच्छी लगी. धन्यवाद. नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये और बधाइयाँ स्वीकार करे . आपके परिवार में सुख सम्रद्धि आये और आपका जीवन वैभवपूर्ण रहे . मंगल्कामानाओ के साथ .
महेंद्र मिश्रा,जबलपुर.
घटना क्रम चौंकाने वाला है, फिर भी अचम्भा नहीं है...मुखौटे धारी व्यक्तित्व यहीं हैं...इसी समाज का हिस्सा हैं..हमारे आस पास ही .....
साहित्य को पालना पोसना, उसके विकास क्रम में सहयोगी होना, समर्पित होना अलग बात है...लेकिन अंहकार से ग्रस्त हो,
कुंठा-ग्रस्त हो उसे खरीद कर परोसना अलग बात...
आदर्श स्थिति तो ये है कि विचार, अभिव्यक्ति, और कर्म में अन्तर न हो .
लेकिन जब कोई स्थापित रचनाकार भी मूल्य हीनता का शिकार हो जाए...तो ?
सफलता और प्रगति कई बार हज़म ही नही हो पाती...सफलता कहाँ से मिली, नाम कहाँ से कमाया, ख्याति कहाँ से अर्जित की...उस सब को भूल कर...उसी स्वरूप को अजायबघर में रखने की बातें की जा रही हैं ? हैरत है, अफ़सोस है, निराशा है, दुःख है
और ज़्यादा दुःख इस बात पर है कि इस दायरे में आने वाले अन्य कुछ लोग, सब जानते हुए भी मूक हैं...और मूक ही रहेंगे..
बंधे हुए हैं, बेचारे मजबूर हैं, तालियाँ तो बजाएंगे लेकिन.....
और बाक़ी बचे हम और आप....
किसी भी जागरूक इंसान के लिए विवेक / समझदारी हर सूरत में जरूरी है, समस्यायों का सामना करने के लिए निषेध के मुकाबिले विद्रोह का रास्ता ज़्यादा कारगर है...
वो जज़्बा इस बार आप में मिला...आपके समर्पण, लगन को सलाम...वरना कई जबानें चुप रहतीं....
परमात्मा के पावन आशीर्वाद से ये सारे संदेश वहाँ तक पहुंचें जहाँ इन्हें पहुंचना चाहिए ... और श्री दरवेश भारती जी का वहाँ होना एक शुभ संकेत ही माना जाना चाहिए...मां सरस्वती जी का अपार आशीष है उन पर तो .......
---मुफलिस---
राजेंदर यादव एक मानसिक रोगी हैं,अपने भूतकाल से बुढापे में निजात पाना चाहते हैं |क्यों ,क्योंकि उनके कप बोर्ड में अनेक बुरे कामों के कंकाल हैं अत वे साडी दुनिया के भूतकाल से डरते हैं i.e he has many skeltons in his cupboard
aaj sahity ki main stream men unhe koi nahin poochhta so vah tathakathit dalitwad- stri mukti ka nara lagate hain .manu bhandari unki wife ,jo ab dashkon se une apna pati nahin manti ki biography padh kar unki sachayee se ribroo hua ja skata hai
कार्यक्रम में बुलाने से पहले क्या राजेन्द्र यादव जी की शैली और व्यक्तित्व के बारे में आयोजक नहीं जानते थे? हिन्दी बड़ी है या राजेन्द्र जी ? उनकी कुछ बातें आपत्तिजनक हो सकती हैं। देववाणी की उम्मीद तो मुख्यअतिथि से भी नहीं करनी चाहिए। कुल मिलाकर बदलाव की आवश्यकता को उन्होंने उजागर किया । भाषा की अपनी अलग गति होती है , लय होती है। मानकीकरण के नाम पर आप सिर्फ और सिर्फ लिखित रूप में उस पर अपनी जबर्दस्ती चला सकते हैं, असल भाषा वह है जो समाज में विकसित हो रही होती है। हिन्दी में आज एक दर्जन से ज्यादा विदेशी भाषाओं के शब्द घुले मिले हैं जो बोलचाल में रोज इस्तेमाल होते हैं। मानकीकरण आधार पर इन्हें निकाल फेकिये और फिर देखिये कि कैसी अपाहिज हिन्दी सामने नज़र आएगी। मगर क्या निकाला जा सकता है ? मुद्रित साहित्य में ऐसा संभव है पर वाचिक परंपरा से जिस बोली का विकास हुआ है , हो रहा है वहां से कैसे इन्हें बाहर निकालेंगे। जहाज के लिए जलयान शब्द का कितनी बार सायास उच्चारण करेंगे ?
हिन्दी को बदलाव की ज़रूरत यक़ीनन है। साहित्य, ब्लाग, पत्रकारिता,सिनेमा सभी माध्यम इसमें सशक्त भूमिका निभा सकते हैं। ज़रूरी यह भर जानना है कि हम इसे कैसी बनाना चाहते हैं ? किसके लिए बनाना चाहते हैं ? याद रखें दुनियाभर की श्रेष्ठ भाषाओं में भी बोलचाल और साहित्य की भाषाओं का स्पष्ट भेद रहा है। अलबत्ता अन्य कई भाषाओं की तुलना में हिन्दी कही अधिक युवा है। उसके साथ राष्ट्रभाषा का दर्जा एक विशेष ऊर्जा पैदा करता है क्योंकि इसी के जरिये वह सम्पर्क भाषा बनी हुई है।
फिर भी आपने खुलेपन से अपनी बातें सामने रखी हैं और लोगों को अपनी बातें कहने का अवसर दिया है। हिन्दी के नाम पर निरंतर संवाद आज बेहद ज़रूरी है। इससे ही पता चलेगा कि हिन्दी के लिए हमारी चिंताएं कितनी वास्तविक हैं और कितनी हवाई ।
शुक्रिया...
First of All Wish U Very Happy New Year....
Badhiyab post , i like it...
Regards..
स्नेहिल शोभा जी ,
सही बात कहने के लिए बधाई ,मैं वहां भी कहना चाहता था ,पर संचालन का अलिखा कानून होता है ,समारोह को सफल बनाना |इसलिए चुप रहा ,मगर जब एक सज्जन ने इस पर कहना चाहा तो माइक उन्हें सौपकर अच्छा लगा की उन्होंने ,राजेंदर यादव की बात का प्रतिवाद किया |वैसे भी यादव न केवल जिन्दगी की अपितु अपनी दूकान को तथाकथित स्त्रीवाद व् दलित वाद के सहारे घसीट रहे हैं व् दया के पात्र बनते जा रहें हैं. नव पीढी को इनके सम्पर्क से गुरेज करना चहिये ,मैंने यह मशविरा आयोजन से पहले भी दिया था ,आयोजकों को
shoba ji ,
main aapki nirbhikta ki daad deta hoon. aur aapki kahi saari baton se sahmat hoon ..
samaj jinke kandho par tika hai , unka aachran ,dusron ko maarg dikhane wala hona chahiye..
is amulay sahaas ke liye badhai ..
vijay
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हिंद युग्म के वार्षिक कार्यक्रम में ख्यातनाम साहित्यकार श्री राजेंद्र यादव के संवोधन से पैदा हुआ विवाद और उसमें वेहद गुस्से के तेवर से एक बात साफ़ हो जाती है कि हिंदी की ये नयी सेना हिंदी भाषा को समृद्ध करने के लिए कटिबद्ध है. आओ दोस्तों हम इसका जस्न मनाये. जो कुछ राजेंद्र यादव ने कहा उसे कहने के तरीके से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूँ लेकिन मेरा सहमत या असहमत होना राजेंद्र यादव के लिए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना अपने चिर विवादस्पद लहजे में अपनी बात कहना. ये ठीक है अब हिंदी के साहित्यकारों को नए जमाने के हिसाब से नए सृजन मूल्य तलाशने होंगे. और अपने अतीत से वाहर निकलना होगा. ये उनकी सोच है जिससे आप सहमत हो सकते हैं और असहमत भी. भाषा ने अपनी यात्रा में बहुत विकास किया है और ये ही भाषा की समृद्धी है. लेकिन उनकी इस बात से सहमत होने का कोई कारण नहीं नज़र आता कि उन्हें कूडेदान मे फेंक दो. वो बेकार है. तो ये जो हिकारत का भाव है अपनी भाषा के प्रति ये सठियाने या अपार दंभ का परिचायक है. आप अपनी बात कहें. लेकिन अपनी विरासत को लात मत मारिये. ये भी कि इस सारी आलोचना से राजेंद्र यादव पर कोई फर्क नहीं पड़ने बाला. वो आदमी नए नए विवादों की खोज करता है और इसी से उसकी दूकान चलती है. शोभा जी का आक्रोश बिल्कुल उचित है लेकिन हम एक बात और समझें कि किसी विद्वान् को हम आमंत्रण दें तो उसके विचार पर मनन करें. अच्छा लगे उसे काम में लें, अच्छा ना लगे भुला दें लेकिन ये उम्मीद करना कि उसका भाषण वैसा होगा जो हमारे विचार हैं ये संभव नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए.
जहां तक प्रश्न सबके सामने सिगार पीने का है इसका साफ़ मतलब है कि वो समाज के नियमो को नहीं मानता, अब ऐसे असामाजिक व्यक्ति को मुख्या अथिती बनाना चाहिए या नहीं हमें सोचना है.
देखिये.भाषा की सार्थकता तब सिद्ध होती हैं,जब आपके भाव सम्बंधित भाषा में हर व्यक्ति विशेष को समझ आ जाए,आपकी बात उस तक पहुच जाए...
ये बात कहने का उद्देश्य हैं की भाषा को ऐसी हो की हर सार्थक बात लोग समझ सके,और जहा तक राजेंद्र जी की बात हैं में उनके बारे में इतना नही जानता,में अभी साहित्य का अदना सा सेवक हूँ,अभी दरमियन-ऐ-पल्लवन हूँ,मेरा कहना शायद हजम न हो पर..मुझसे भाषा की तोहीन नही देखि जाती...राजेंद्र जी की बात का आशय सही केवल यह निकलता हैं की हमें जरुरत हैं,ताकि आधुनिक युग के जन,गन, मन साहित्य की सार्थकता और मूल्यों मर्यादाओ को जान सके,इसलिए सरलतम रास्ता हो ताकि अपने बात हम उन्हें कह सके बस,और उन्होंने इस उद्देश्य से कहा की बदलाव होना चाहिए , पर उनके तरीके से नही की हमारी भाषाई धरोहर को छोड़ दे..ये पूर्णतः ग़लत हैं.इसका समर्र्थन करता हूँ की वर्त्तमान पीडी को को जीवन के मूल्य के दर्शन करवाने के लिए हमारी भाष सरल की जाए मगर 'ससम्मान' न की महानुभाव जी के सलीके से.
इनका बदलाव मूल्यों के बदलाव की और संकेत करता हैं और हम कदापि नही चाहेंगे की ऐसा हो,हम सभी युवा हमारी नींव साथ चाहते हैं बिना नींव तो हम कुछ भी नही.
क्यूंकि हम ये नही भूलते की हिन्दी भाषा का अतीत गौरवशाली नही होता तो साहित्य सेवको की अहमियत क्या होती आज कोई किसी को नही जानता या पूछता,
और आज ऐसी बाते हमारी भाषा का अपमान तो हैं ही और इस बात का संकेतक हैं की साहित्य के क्षेत्र में बाजारवाद किस कदर हावी हो गया हैं...और ये प्रसंग बाजारवाद का ही एक रूप हैं नही तो जेसा राजेब्द्र जी ने कहा ऐसा कभी नही कहते, क्यूंकि हर साहित्य भक्त अपने आधार के साथ खिलवाड़ नही चाहता.मान्यवर ये भूल गए हैं हिन्दी के साथ किए आपके साहित्य प्रयोग के कारन ही आज आप लोकप्रिय हैं. कोई अपने आधारों से आगे नही जा सकता चाहे वो ब्रह्मा देव क्यों न हो.आज इनका लहलहाता व्यक्तित्व इनके मूल्यों की बुनियाद पर ही तो टिका हैं,अगर नही हैं तो साहब से कहियेगा अपने नाम के या जीवन में से हिन्दी का नाम पृथक कर दे, फ़िर आप कभी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग न करे न ऐसे प्रयोगवाद का समर्थन करेंगे जो केवल बाजारवाद प्रथा तक ही सिमित हो सकते हैं,कुडेदान की बात कर रहे हैं अपने अतीत और जेहम में एकबार झाँककर देखे फ़िर आप खुदबखुद समझ जायेंगे फ़िर आप इतनी गरिमामयी भाषा में प्रयोगवाद के लिए ऐसे उद्धरण पेश नही करेंगे,
लेकिन में एक बात से सहमत हु की बदलाव को हमें मंजूरी देनी होगी पर जब की वो बदलाव मर्यादा में हो न की इनके तरीके से ,अधिनिक युग हैं हैं ,इसमें बदलाव तो होंगे ही पहले भी हुए हैं पर इस तरीके से नही जो और जेसा मान्यवर चाहते हैं,
राजेब्द्र जी को अपने विचार कहने का पुरा हक था उन्होंने अपने विचार रखे . हमें ठीक नही लगे हम लोगों ने भी मनचाही प्रतिक्रिया दी,पर इन बातो में उनके व्यक्तित्व पर ऊँगली उठाना ग़लत हैं,उन्होंने भी साहित्य की सेवा मन से की हैं ये आप सभी जानते हैं, पर ऐसा उन्होंने ग़लत किया ये हमारी सोच हैं,कई लोग उनका समर्थन करेंगे क्यूंकि आज साहित्य बाज़ार तक पहुँच चुका हैं लोग आकर्षण चाहते हैं मौलिकता नही इसलिए हमें इन चीजो को सकारत्मक रूप से हजम करना होगा और ऐसे बदलाव न हो(जेसा राजेंद्र जी कहते हैं ) ये प्रयास करने होंगे.. ..और हम करेंगे.
पर इस कारन उनके ऐसी बाते अर्थात उनके व्यक्तित्व पर ऊँगली उठाना ग़लत हैं,हम सात्विकता जानते हैं हम हिन्दी साहित्य के सेवक हैं मर्यादा नही भूलना चाहिए उनकी आलोचना एक तरफ़ हैं पर वो सम्म्मानीय हैं अतएव उनका सम्मान करे ग़लत व्यन्गो से उनका अपमान न करे न ही अपने व्यक्तित्व में दाग लग्ने दे ,हमारे आक्रामक शब्द भी बाजारवाद का हिस्सा हैं हम सभी हल चाहते हैं और न की विवाद,और यह तो हमें सचेत करती हुई बात हैं की हमे आने वाले बदलावों से सामना करना पड़ेगा, ये प्रसंग भी उसी का हिस्सा हैं और जेसे हम सभी उससे लड़ रहे हैं वेसे ही लड़ते रहेंगे.....हम सभी बामर्यादा साहित्य सेवा में लगे रहेंगे तो ऐसी बातें पनपेगी ही नही, व्यक्ति विशेष का सम्मान करे ये हमारा धर्मं हैं....शुभम्
देखिये.भाषा की सार्थकता तब सिद्ध होती हैं,जब आपके भाव सम्बंधित भाषा में हर व्यक्ति विशेष को समझ आ जाए,आपकी बात उस तक पहुच जाए...
ये बात कहने का उद्देश्य हैं की भाषा को ऐसी हो की हर सार्थक बात लोग समझ सके,और जहा तक राजेंद्र जी की बात हैं में उनके बारे में इतना नही जानता,में अभी साहित्य का अदना सा सेवक हूँ,अभी दरमियन-ऐ-पल्लवन हूँ,मेरा कहना शायद हजम न हो पर..मुझसे भाषा की तोहीन नही देखि जाती...राजेंद्र जी की बात का आशय सही केवल यह निकलता हैं की हमें जरुरत हैं,ताकि आधुनिक युग के जन,गन, मन साहित्य की सार्थकता और मूल्यों मर्यादाओ को जान सके,इसलिए सरलतम रास्ता हो ताकि अपने बात हम उन्हें कह सके बस,और उन्होंने इस उद्देश्य से कहा की बदलाव होना चाहिए , पर उनके तरीके से नही की हमारी भाषाई धरोहर को छोड़ दे..ये पूर्णतः ग़लत हैं.इसका समर्र्थन करता हूँ की वर्त्तमान पीडी को को जीवन के मूल्य के दर्शन करवाने के लिए हमारी भाष सरल की जाए मगर 'ससम्मान' न की महानुभाव जी के सलीके से.
इनका बदलाव मूल्यों के बदलाव की और संकेत करता हैं और हम कदापि नही चाहेंगे की ऐसा हो,हम सभी युवा हमारी नींव साथ चाहते हैं बिना नींव तो हम कुछ भी नही.
क्यूंकि हम ये नही भूलते की हिन्दी भाषा का अतीत गौरवशाली नही होता तो साहित्य सेवको की अहमियत क्या होती आज कोई किसी को नही जानता या पूछता,
और आज ऐसी बाते हमारी भाषा का अपमान तो हैं ही और इस बात का संकेतक हैं की साहित्य के क्षेत्र में बाजारवाद किस कदर हावी हो गया हैं...और ये प्रसंग बाजारवाद का ही एक रूप हैं नही तो जेसा राजेब्द्र जी ने कहा ऐसा कभी नही कहते, क्यूंकि हर साहित्य भक्त अपने आधार के साथ खिलवाड़ नही चाहता.मान्यवर ये भूल गए हैं हिन्दी के साथ किए आपके साहित्य प्रयोग के कारन ही आज आप लोकप्रिय हैं. कोई अपने आधारों से आगे नही जा सकता चाहे वो ब्रह्मा देव क्यों न हो.आज इनका लहलहाता व्यक्तित्व इनके मूल्यों की बुनियाद पर ही तो टिका हैं,अगर नही हैं तो साहब से कहियेगा अपने नाम के या जीवन में से हिन्दी का नाम पृथक कर दे, फ़िर आप कभी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग न करे न ऐसे प्रयोगवाद का समर्थन करेंगे जो केवल बाजारवाद प्रथा तक ही सिमित हो सकते हैं,कुडेदान की बात कर रहे हैं अपने अतीत और जेहम में एकबार झाँककर देखे फ़िर आप खुदबखुद समझ जायेंगे फ़िर आप इतनी गरिमामयी भाषा में प्रयोगवाद के लिए ऐसे उद्धरण पेश नही करेंगे,
लेकिन में एक बात से सहमत हु की बदलाव को हमें मंजूरी देनी होगी पर जब की वो बदलाव मर्यादा में हो न की इनके तरीके से ,अधिनिक युग हैं हैं ,इसमें बदलाव तो होंगे ही पहले भी हुए हैं पर इस तरीके से नही जो और जेसा मान्यवर चाहते हैं,
राजेब्द्र जी को अपने विचार कहने का पुरा हक था उन्होंने अपने विचार रखे . हमें ठीक नही लगे हम लोगों ने भी मनचाही प्रतिक्रिया दी,पर इन बातो में उनके व्यक्तित्व पर ऊँगली उठाना ग़लत हैं,उन्होंने भी साहित्य की सेवा मन से की हैं ये आप सभी जानते हैं, पर ऐसा उन्होंने ग़लत किया ये हमारी सोच हैं,कई लोग उनका समर्थन करेंगे क्यूंकि आज साहित्य बाज़ार तक पहुँच चुका हैं लोग आकर्षण चाहते हैं मौलिकता नही इसलिए हमें इन चीजो को सकारत्मक रूप से हजम करना होगा और ऐसे बदलाव न हो(जेसा राजेंद्र जी कहते हैं ) ये प्रयास करने होंगे.. ..और हम करेंगे.
पर इस कारन उनके ऐसी बाते अर्थात उनके व्यक्तित्व पर ऊँगली उठाना ग़लत हैं,हम सात्विकता जानते हैं हम हिन्दी साहित्य के सेवक हैं मर्यादा नही भूलना चाहिए उनकी आलोचना एक तरफ़ हैं पर वो सम्म्मानीय हैं अतएव उनका सम्मान करे ग़लत व्यन्गो से उनका अपमान न करे न ही अपने व्यक्तित्व में दाग लग्ने दे ,हमारे आक्रामक शब्द भी बाजारवाद का हिस्सा हैं हम सभी हल चाहते हैं और न की विवाद,और यह तो हमें सचेत करती हुई बात हैं की हमे आने वाले बदलावों से सामना करना पड़ेगा, ये प्रसंग भी उसी का हिस्सा हैं और जेसे हम सभी उससे लड़ रहे हैं वेसे ही लड़ते रहेंगे.....हम सभी बामर्यादा साहित्य सेवा में लगे रहेंगे तो ऐसी बातें पनपेगी ही नही, व्यक्ति विशेष का सम्मान करे ये हमारा धर्मं हैं....शुभम्
shobha ji
aapke blog par pahli baar aayi hun .
hindi bhasha ka aisa apman hone par to koi bhi chup nhi rah sakta.jab hum kisi bhi bhasha aur sanskriti ka apman nhi karte to aise mein apne desh ke karndhar hi aisa karenge to desh to pata nhi kahan jayega.bahut achcha kiya aapne aise logon ke liye yahi sabak hai.
सुश्री शोभा महेंद्रुजी, नमस्कार
आपके ब्लॉग *अनुभव* को कुछ दिनों पूर्व पढ़ा.
*शर्मिंदा हुई हिंदी* के एपिसोड पर व्यापक चर्चा को देखा.
अपनी *माता,मातृभाषा,मातृभूमि* का शाब्दिक तिरस्कार न सिर्फ वहां उपस्थित लोगो को बल्कि आपके ब्लॉग को पढ़नेवालों को कितना उद्वेलित कर गया है. कवि,लेखक या साहित्यकार ही नहीं आम पाठक भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गया है. हमारे देश,समाज,व्यक्ति में अनजाने में भी उपरोक्त केवल शब्द नहीं है ये तो पूजनीय माने जाते हैं चाहे हम किसी धर्म मजहब के हो. इस तरह से बोलना तो दूर सोचा भी नहीं जा सकता.
इन्टरनेट के *हिंदी-युग्म* जैसी स्तरीय+पठनीय+सुंदर पत्रिका की नियमित पाठिका हूँ पाठन के साथ जुडी हूँ अब लेखन के माध्यम से भी जुड़ना आवश्यक समझ रही हूँ ताकि अपने सशक्त विचार हमारे सभी जागरूक बंधुओं-बान्धवियों तक पहुंचा सकूँ.
इस अच्छी साहित्यिक पत्रिका *हिंदी-युग्म* के वार्षिक कार्यक्रम में जिन माननीय के *संबोधन* के कुछ शब्द अशोभनीय रहे ,अकल्पनीय सा है. निःसंदेह आयोजकों को भी वेदना हुई होगी.
आज हम सबके सामने अति गहन विचारशील यक्ष प्रश्न बन गया है कि आखिर एक इतने "बड़े सुविज्ञ ,प्रसिद्ध व सुपरिचित हस्ताक्षर" को क्यों ऐसा कहना पढ़ा ,उनकी मानसिकता में क्यों ये परिवर्तन आया. वे क्या प्रदर्शित करना चाहते रहे. हाँ किसी के पर्सनल रहन-सहन-दिखावा या कार्य प्रणाली से ज्यादा परेशानी नहीं.(वे स्वतंत्र हैं)
पर उनकी भावनाएँ कैसे अवरोधित हुईं, कोई कुंठा ,अव्सादग्रस्त बेचैनी, मानसिक हताशा या अभिव्यक्ति का गलत सलीका. विश्वास करना कठिन सा लगता है पर अगर ऐसी सीख छोटों को देंगे तो क्या होगा.
लीक से हटकर चलने को. नयी परिवर्तित सोच या बदलाव को. आधुनिकता की तकनीक को गलत नहीं माना जाता पर अशिष्ट तरीके से कहनेवाली असंस्कृत भाषा कतई स्वीकार्य नहीं.
आधुनिकता+प्रगतिवाद के आकर्षण के साथ भी बुनियादी शिक्षा,एकता-समानता व संस्कार,गरिमा-गौरव बने रहें.
हिंदी साहित्यजगत में "अति सम्माननीय लेखकीय व्यक्तित्व" आखिर अपनी कथनी-करनी से स्वयं को क्यों इस परिस्थिति में ले आये? क्या वे स्वयं उस उत्कृष्ट आयोजन में अपनी ऐसी भागीदारी चाहते रहे होंगे? "कदापि नहीं".
वास्तव में हमारा प्रश्न अनु-उत्तरित ही नहीं विचारणीय बन गया है.
स्वतंत्र देश में हम सबको अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अधिकार है. अतः अनेक जागरूक मनीषियों ने अपनी तरह से चिंता जाहिर की है जो स्वाभाविक है.
१.अमनजी का कहना भला लगा कि असंतुलित बातों को सुनकर हमें भी अपना धीरज खोकर अमर्यादित होकर अपनी गरिमा नहीं खोनी चाहिये.
२.सुश्री रचनाजी की बांतों से सहमत हूँ. आधुनिक तकनीक में उनका समर्थन. ३. संजीव सलिल का मंतव्य सशक्त है कि हमारी मातृभाषा हिंदी में बदलाव का पानी तो दें पर इतना नहीं कि जड़ें सड़ जाएँ या सूख जाएँ.
४. शोभाजी ने अपनी आवाज बुलंद की है सब उनके सहयोगी साथ में आते जाते है.
लगभग दो वर्षों पूर्व भी एक पत्रिका में महिलाशक्ति-स्त्रीविमर्ष पर बहुत असंतुलित-अमर्यादित संभाषण आया था तब भी साहित्यकारों ने अपना आवाज उठाई थी. पर सिर्फ कहने भर से कुछ नहीं हासिल होता न कोई बदलता है .
१.अक्सर समाज में बहुत कुछ असामाजिक होता रहता है जो मानसिक कष्ट देने के साथ संवेदनाएँ जाग्रत करके झकझोर देता है. इसीलिए ठोस तरीके खोजकर बदलना तो अपेक्षित है ही. पर गलत कार्य करनेवालों को अपराधबोध का ज्ञान भी बड़प्पन (dignity) से देना जरूरी है.ताकि उन्हें समझ आये कि क्या सही है क्या गलत.
२.समय समय पर ज्वलंत व सामयिक विषय पर विशेष परिचर्चाओं का आयोजन भी इन्टरनेट या अन्य किसी माध्यम से हो सकता है. जहाँ केवल विचारों का उफान ही नहीं, गहरी विशालता,सघनता,संयत भाषा भी मिले.
सबके लिए खुला मंच हो. सबका स्वागत हो.
मैथिलीशरण गुप्तजी ने कहा है,
हो रहा है जहाँ, सो हो रहा,यदि वही हमने कहा, तो क्या कहा..
किन्तु होना चाहिए, कब क्या कहाँ, व्यक्त करती है व्यथा यहाँ.
और भी बहुत कुछ कहना है अगली बार .
सादर नमन ,अभिनन्दन
एक पाठिका,लेखिका . अलका मधुसूदन पटेल
आश्चर्य मिश्रित अफ़सोस ! आशा रखिये शोभा जी !
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