मुखौटे
>> Monday, September 1, 2008
जहाँ कहीं भी जाओगे
हर तरफ, हर किसी को
मुखौटे में ही पाओगे ।
यहाँ खुले आम मुखौटे बिकते हैं
और इन्हीं को पहन कर
सब कितने अच्छे लगते हैं
विश्वास नहीं होता --?
आओ मिलवाऊँ
ये तुम्हारा पुत्र है
नितान्त शरीफ,आग्याकारी
मातृ-पितृ भक्त
हो गये ना तृप्त ?
लो मैने इसका
मुखौटा उतार दिया
अरे भागते क्यों हो--
ये आँखें क्यों हैं लाल
क्या दिख गया इनमें
सुअर का बाल ?
आओ मिलो -
ये तुम्हारी पत्नी है
लगती है ना अपनी ?
प्यारी सी, भोली सी,
पतिव्रता नारी है पर-
मुखौटे के पीछे की छवि
भी कभी निहारी है ?
ये तुम्हारा मित्र है
परम प्रिय
गले लगाता है तो
दिल बाग-बाग
हो जाता है
क्या तुम्हे पता है
घर में सेंध वही लगाता है
ये तो दोस्ती का मुखौटा है
जो प्यार टपकाता है
और दोस्तों को भरमाता है
मुखौटे और भी हैं
जो हम सब
समय और आवश्यकता
के अनुरूप पहन लेते हैं
इनके बिना सूरत
बहुत कुरूप सी लगती है
मुखौटा तुमने भी पहना है
और मैने भी
सच तुम्हे भी पता है
और मुझे भी
फिर शिकायत व्यर्थ है
जो है और जो हो रहा है
उसके मात्र साक्षी बन जाओ
मुखौटे में छिपी घृणा, ईर्ष्या
को मत देखो
बस---
प्यारी मीठी- मीठी बातों का
लुत्फ उठाओ ।
18 comments:
बहुत अच्छी कविता लगी सच में सब मुखोटे लगाये ही घूमते रहतें है ...और यह सच सब जानते हैं ..
सच कहती हैं आप इन मुखोटों के पीछे का चेहरा कभी दिखाई ही नहीं देता...बहुत अच्छी रचना.
नीरज
kya bat hai shobha ji...
bahut hi achi kavita likhai hai...
jeewan ki sachai ko batati huyee...
achi rachna se parichay karwaya hai...
badhai ho...
lajwab...
यूँ बसर करता हूँ मै अब ..
रोज इक नया मुखोटा लगा लेता हूँ..
सच्ची कविता, जिस पर कोई मुखौटा नहीं।
बहुत ही सुन्दर कविता ,ओर सच से भरपुर,हर किसी ने एक मुखॊटा लग रखा हे,ओर उस के पीछे कितना घिन्नोना पन हे.... राम राम
धन्यवाद एक सच्चाई से रुबरु करने के लिये.
आईने का कोई अक्स बतलायेगा
असलियत क्या मेरी, मैं नहीं मानता
मेरे चेहरे पे अनगिन मुखौटे लगे
वक्त के साथ जिनको बदलता रहा
जब भी जैसा भी न्मौका मिला है मुझे
मैं लगा कर इन्हें सब को छलता रहा..
सुन्दर लिखा है आपने
zindagi ka kadua sach,wo bhi bina kisi mukhaute ke.bahut sahi likha aapne
एक अच्छी कविता। बधाई।
enjoyed reading each word of the poerty, very well written.
REgards
अच्छी पोस्ट
बहुत बढ़िया!
मगर यह मजबूरी किसको सुनायेंगे
ये मुखौटे हटाने हम नहीं जायेंगे
क्योंकि सच के साथ जी नहीं पायेंगे!
बहुत बढ़िया!
मगर यह मजबूरी किसको सुनायेंगे
ये मुखौटे हटाने हम नहीं जायेंगे
क्योंकि सच के साथ जी नहीं पायेंगे!
भयंकर यथार्थ बहुत अच्छी रचना
मुखौटों से निजात पाना मुश्किल है। क्या सच लिखा है-
इनके बिना सूरत
बहुत कुरूप सी लगती है।
सही बात लिखी है आपने कविता में। जब सभी ने मुखौटे लगा रखे हैं, तो एक-दूसरे को कोसना क्या?
बुराइयां किसके अंदर नहीं हैं? लगातार दूसरों की बुराइयां देखने से बेहतर है लोगों की अच्छाइयों को रेखांकित किया जाए।
'
जो हो रहा है, उसके मात्र साक्षी बन जाओ।''
बहुत शुभ विचार हैं। अगर लोग इसका मर्म समझ जाएं, तो जीवन के सारे दुख दर्द फना हो जाऍं।
बहुत अच्छी रचना
आपको बधाई
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