आधुनिक नारी
बाहर से टिप-टाप
भीतर से थकी-हारी
।सभ्य, सुशिक्षित, सुकुमारी
फिर भी उपेक्षा की मारी
।समझती है जीवन में
बहुत कुछ पाया है
नहीं जानती-ये सब
छल है, माया है।
घर और बाहर
दोनों मेंजूझती रहती है।
अपनी वेदना मगर
किसी से नहीं कहती है
।संघर्षों के चक्रव्यूह
जाने कहाँ से चले आते हैं ?
विश्वासों के सम्बल
हर बार टूट जाते हैं
किन्तु उसकी जीवन शक्ति
फिर उसे जिला जाती है
।संघर्षों के चक्रव्यूह से
सुरक्षित आ जाती है ।
नारी का जीवन
कल भी वही था-
आज भी वही है ।
अंतर केवल बाहरी है ।
किन्तुचुनौतियाँ
हमेशा सेउसने स्वीकारी है
।आज भी वह
माँ-बेटी तथा
पत्नी का कर्तव्य निभा रही है ।
बदले में समाज से
क्या पा रही है ?
गिद्ध दृष्टि
आज भी उसेभेदती है ।
वासना आज भी रौंदती है ।
आज भी उसे कुचला जाता है ।
घर, समाज व परिवार मेंउसका
देने का नाता है ।
आज भी आखों में आँसू
और दिल में पीड़ा है ।
आज भी नारी-श्रद्धा और इड़ा है ।
अंतर केवल इतना है
कल वह घर की शोभा थी
आज वह दुनिया को महका रही है ।
किन्तु आधुनिकता के युग में
आज भी ठगी जा रही है ।
आज भी ठगी जा रही है
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10 comments:
एकदम मेरे मन की बात कही है।
बाहर से टिप-टाप
भीतर से थकी-हारी
...यही तो पूंजीवाद का दबाव है।
सुन्दर एवं सशक्त अभिव्यक्ति.
किन्तु आधुनिकता के युग में
आज भी ठगी जा रही है ।
बिलकुल सही कहा आपने...
सुनीता(शानू)
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति !
मै नारी को दूसरे रूप मे देखती हूँ ...
"समर्पण का, त्याग का और प्रेम का
भाव पाकर सब कुछ अपना लुटा रही है.
यह नियति , यह भाव देख नारी का
स्वयं प्रकृति भी आश्चर्य चकित हो रही है..
ठगी तो जा रही है, लेकिन आगे भी बढ रही है आज की नारी।
सुंदर और मार्मिक कविता...
मैं तो अनिलजी की बात से सहमत हूँ, नारी ठगी जा रही , लुटी जा रही है, सही जा रही है पर बढ़ी भी तो जा रही है।
कविता के भाव बहुत बढ़िया है, पर नारी के स्वर में निराशा अच्छी नहीं लगती। वह तो जननी है। पुरूष एक बार हार मान लेगा पर नारी कभी हार नहीं मानती।
नारी शक्ति को शत शत नमन
बढिया रचना है।
मैं सागर चाँद जी सहमत हूँ. नारी के स्वर में ही अगर निराशा होगी तो दुनिया का क्या होगा. लेकिन आपकी कविता बहुत ही अच्छी लगी.
Nari jab tak economically strong n indepedent nahi hogi .. ye vyatha-katha chalti rahegi !!!!!!!
Bahut ki satik chitan hai nari ke dwand ka kal bhi aaj bhi.. I pray aanewala kal aisa na ho.
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