मुसाफ़िर
>> Thursday, October 4, 2007
राह में चल तो रहा हूँ
पर लक्ष्य हीन -
गंतव्य धूमिल है
एक भीड़ के पीछे
चलता जा रहा हूँ
कभी काँटा चुभ जाता है
गति में अवरोध आजाता है
जब फूल मुसक्कुराता है
हृदय प्रफुल्लित हो जाता है
ऐसे अनेकों मोड़ आए हैं
जहाँ मेरे कदम डगमगाए हैं ।
राह की रंगीनियों से
आँखें चुँधियाई हैं ।
पर कुछ पल ठहर कर
राह ही अपनाई है ।
हर एक मोड़ पर
दिल मेरा ललचाया है
यात्रा में बार-बार
अवरोध गया आया है
फिर भी उठा हूँ
आगे बढ़ा हूँ
सतत् गतिशील
संघर्षमय , विकासोन्मुख
क्योंक मैं जानता हूँ
मैं हमेशा विजित हुआ हूँ
और होता रहूँगा ।
कर्म में मेरी निष्ठा
असीमित और अपरिमित है
मै अज़र-अमर अविनाशी हूँ
अपराजित, दुर्जेय हूँ
एक अनन्त यात्रा का पथिक
एक मुसाफ़िर
4 comments:
कर्म में मेरी निष्ठा
असीमित और अपरिमित है
मै अज़र-अमर अविनाशी हूँ
अपराजित, दुर्जेय हूँ
एक अनन्त यात्रा का पथिक
एक मुसाफ़िर
--बहुत उम्दा, इसी विश्वास को थामे चलते रहें. अच्छा लगा पढ़कर. बधाई.
शोभा जी,
लक्ष्य तो विजय ही है भीड के साथ हो या फ़िर अकेले चल कर... राह में हार मानने वाले मंजिल नहीं पाते... और अपने दम पर हासिल हर मंजिल ज्यादा प्यारी होती है..
सुन्दर रचना... बधाई
कर्म में मेरी निष्ठा
असीमित और अपरिमित है
Shobha ji, zindagi mein her raah per her ek musafir ko yahi ek baat hamesha yaad rakhna hai ki use bus chalna hi hai chalna hi hai, aur haan ekdam sahi kaha hai aapne "Karma mein meri nishtha asimit aur aparimit hai". Karma mein NISHTHA yahi bahot jaroori hai hamesha kamyabi hansil karne ke liye. good article. regards
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