कभी-कभी
>> Sunday, October 14, 2007
कभी-कभी सब कुछ
अच्छा क्यों लगने लगता है ?
बिना कारण कोई
सच्चा क्यों लगने लगता है ?
क्यों लगता है कि
कुछ मिल गया ?
अँधेरे में जैसे चिराग जल गया ?
हवाओं की छुवन
इतनी मधुर क्यों लगने लगती है ?
पक्षी की चहचहाहट
क्यों मन हरने लगती है ?
मन के आकाश में
रंग कहाँ से आ जाते हैं ?
किसी के अंदाज़
क्यों इतना भा जाते हैं ?
भीनी-भीनी खुशबू
कहाँ से आजाती है ?
और चुपके से
हर ओर बिखर जाती है ?
ना जाने कौन
कानों में चुपके से
कुछ कह जाता है ।
जिसे सुनकर-
मेरा रोम-रोम
मुसकुराता है ।
10 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति . सच मे इस 'क्यों' का उत्तर हर कोई तलाश कर रहा है.
सुंदर रचना, ऐसा जब हो जाए, नैन आकाश बन जाए , और मन बन पंछी उड़ जाए
वाह, एक सुन्दर रचना. अच्छा लगा पढ़ कर.
कुछ प्रशन अनुतरित ही रहें तो ही जीवन का आनंद है वैसे भी हर प्रशन का उत्तर मिले ही ये कहाँ ज़रूरी होता है? फिर भी बहुत सार्थक प्रशन उठाएं हैं आपने और वो भी इतने दिलकश अंदाज़ मैं की मुह से बरबस वाह निकल गयी.
बधाई स्वीकार करें.
नीरज
ये तो प्रीत की दिवानगी है…
अच्छी कविता… ।
अरे ये तो प्रेम छे, प्रेम छे. प्रेम छे, प्रेम छे
बहुत खूबसूरती से आपने अत्हड़ पेम को दर्शाया है।
अगर अपने ब्लोग पर " कापी राइट सुरक्षित " लिखेगे तो आप उन ब्लोग लिखने वालो को आगाह करेगे जो केवल शोकिया या अज्ञानता से कापी कर रहें हैं ।
शोभा जी,
यो तो प्रेम छे प्रेम छे..
भय़ंकर रोग.... बचने के आसार कम.....अत्याधिक संभाल की आवशयकता है इस दशा में
Its just matching chemistry with immediate chemical reaction...a momentary lapse of reason.... impact of interlacing pheromones...pray that it lasts longer.
मोहक प्रेम तरंग प्रवाहित है आपकी रचना में.
Shobhaji,
ना जाने कौन
कानों में चुपके से
कुछ कह जाता है ।
जिसे सुनकर-
मेरा रोम-रोम
मुसकुराता है ।
yah kaun ko dhoondh lena bahot jaroori hai aap ke liye kyon ki agar yah nahi pahchan payi to bhatak jane ke aasaar ekdam badhiya hai. hehehe
anyways ekdam uchhalta kudta hua article mahsoos hua, aisa feel ho raha hai padh kar ki kisi nay yauvana ne apni soch ko abhivyakt kar diya hai aap ki is rachna se.... keep it up
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