मुसाफ़िर
>> Thursday, October 25, 2007
राह पर चल तो रही हूँ
लक्ष्य की ना कुछ खबर है
आँख में सपने बहुत हैं
डगमगाती पर नज़र है
ज़िन्दगी के इस सफ़र में
कैसे-कैसे मोड़ आए
लक्ष्य का ना कुछ पता था
पाँव मेरे डगमगाए
राह की रंगीनियों ने
था बहुत मुझको पुकारा
उस मधुर आवाज़ से भी
कर लिया अक्सर किनारा
कंटकों की राह चुन ली
किन्तु फिर भी मैं ना हारा
हाँ कभी आवाज़ कोई
प्रेम की दी जब सुनाई
पाँव मेरे रूक गए थे
राह में थी डगमगाई
ज़िन्दगी के स्वर्ण के पल
राह से मैने उठाए
और दामन में समेटे
राह में जो काम आए
तक्त मीठे और खट्टे
राह में कितने मिले हैं
शूल के संग फूल भी तो
राह में अक्सर बिछें हैं
अब तो आ पहुँचा समापन
दिख रहा रौशन उजाला
पाँव अब क्यों काँपते हैं
हृदय में जब है उजाला
बावले अब धीर धर ले
सामने अब मीत प्यारा
मिल गया तुमको किनारा
4 comments:
वाह… अतिसुंदर्…
सच एक मुसाफिर के सफर को जीवंत कर दिया…
सारे तथ्य इस एक रचना में समाहित हो गये जो निश्चय ही उत्कृष्टता है चिंतन की।
संपूर्ण जीवन वृत:
बावले अब धीर धर ले
सामने अब मीत प्यारा
मिल गया तुमको किनारा
--अति उत्तम, बधाई.
अब क्यों काँपते हैंहृदय में जब है उजालाबावले अब धीर धर लेसामने अब मीत प्यारामिल गया तुमको किनारा
very rightly said, ab kyon man baanwara, dheer dhar. ab jab raah bhi asaan ho gayi hai aur kinara bhi samne hai, fir mann kyon bawara. lekin yah mann, hamesha baawara hi hota hai. good article
बहुत खूब लिखा है, इतनी दार्शनिक बात इतने आसान शब्दों में ब्यां कर दी, बधाई
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