प्यास
>> Friday, August 31, 2007

प्यास
भँवरे को कलियों के खिलने की प्यास
कलियों को सूरज की किरणों की प्यास
सूरज को चाहें चाँद की किरणें
चन्दाके आने की सन्ध्या को आस
सन्ध्या को माँगा है तपती जमीं ने
किसने बुझाई है किसकी ये आस ?
गीतों ने चाहा है खुशियों का राग
खुशियों को अपनो से मिलने की आस
अपने भी जाएँ जो आँखों से दूर
मिलने की रहती है बेबस सी आस
प्यासी ज़मीं और प्यासा गगन है
प्यासी नदी और प्यासी पवन है
नहीं कोई हो पाता जीवन में पूरा
तमन्नाएँ कर देती सबको अधूरा
अतृप्ति मिटाती है ओठों से हास
सभी हैं अधूरे सभी को है प्यास
मगर जिनको मिलता है तेरा सहारा
उसी को मिला है यहाँ पर किनारा
ये भोगों की दुनिया उसे ना रूलाती
जगी जिसकी आँखों में ईश्वर की प्यास
चलो आज करलो जहाँ से किनारा
लगा लो लगन और पा लो किनारा
वो सत्-चित् आनन्द सबका सहारा
वहीं जाओ फिर पाओगे तुम किनारा
अतृप्ति रहेगी ना भोगों की प्यास
मिटा देगा वो तेरी जन्मों की प्यास

![रंजना [रंजू भाटिया]](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNSAuS52Q1_koZq7RTiPaXqebGpMwcHg1IpW_7oLT5AyisXdMENDn6DPmFqCSY82w0Bsv0CHvnTgf0BbkoDfqXMy_UDcRPo5LKUp2tZhDEXYlITXZ4IwMy3VZyidFnjX_1qWTPYSn2l49A/s220/kerHSSw_-3_kkPlI-U4lMaZFGJ_ZmKWaGRg7oiEO__qm-oArXQpiBh9pkellIe3_.jpeg)

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